Book Title: Gyansuryodaya Natak
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 41
________________ द्वितीय अंक। मज ण वज्जणिजं दव्व दवं जहा जलं तहा एदं। इदि लोये घोसित्ता पवद्वियं सव्वसावज ॥ मंसस्स णस्थि जीवो जहा फले दहियदुद्धसक्करए। तम्हा तं वंछित्ता तं भक्खंता ण पाविद्या॥ अण्णो करोदि कम्म अण्णो तं भुंजदीदि सिद्धतं । परिकप्पिऊण लोयं वसकिच्चा णिरयमुववण्णो ॥५॥ अर्थात् श्रीपार्श्वनाथ भगवानके तीर्थमें, सरयू नदीके तीर, पलाशनगरके रहनेवाले पिहितास्रव गुरुके शिष्य, महाश्रुतके धारी, वुद्धिकीर्ति मुनिने मछलीका मांस अग्निमें भूनकर खा लिया। जिससे दीक्षाभ्रष्ट होकर उसने लाल वस्त्र धारण कर लिये, और यह एक एकांतरूप रक्तांवरमत (वौद्धमत) चलाया । " मद्य (शराब) वर्जनीय नहीं है । जैसे जल द्रव्य बहनेवाला है, उसी प्रकार यह भी है ।" उसने लोकमें इस प्रकार घोषणा करके सावध अर्थात् हिंसायुक्त मतकी प्रवृत्ति की। मांसमें जीव नहीं है। जैसे फल, दही, दूध, शक्कर आदि पदार्थ हैं, उसी प्रकार मांस भी है । अतएव उसकी वांछा करनेवाला तथा उसे भक्षण करनेवाला पापिष्ठ नहीं हो सकता है । इसके सिवाय कर्मका करनेवाला कोई अन्य है और उसका फल कोई अन्य ही भोगता है । यह बात अच्छी तरह सिद्ध हो चुकी है । इस प्रकार परिकल्पना करके और लोगोंको वशमें करके वह बुद्धिकीर्ति नरकको गया। शान्ति-(घृणासे ) धिक्कार है, ऐसे धर्मको। क्षमा-बेटी ! मैंने तो पहले ही कहा था कि, ऐसे पापिष्ठोंके घर मेरी पुत्री नहीं होगी । अस्तु, चलो अब यहांसे चलें।

Loading...

Page Navigation
1 ... 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115