Book Title: Gyansuryodaya Natak
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 32
________________ २० ज्ञानसूर्योदय नाटक । __ सत्यवती-तुम ऐसा क्यों पूछती हो कि, प्रभुने मेरा सरण किया है ? तुम्हारे विना तो उन्हें कहीं जरा भी सुख नहीं है! दया-सत्यवति! ऐसी झूठी बातें बनाकर भला तू मुझे क्यों व्यर्थ रंजायमान करती है? ___ सत्यवती-यदि झूठ कहती हूं, तो अब प्रत्यक्ष चलकर देख लेना । इस समय अधिक कहनेसे क्या? जैसे गृहस्स लक्ष्मीके लोभको धारण करके समय व्यतीत करता है, उसी प्रकारसे महारोज तुझे हृदयमें धारण करके रात्रि दिन पूर्ण करते है। [ दया बड़ी उत्कंठाके साथ सत्यवतीके साथ चलती है । परदा पड़ता है। तृतीय गर्भाः । स्थान-राजभवन । द्वारपर सत्य पहरा दे रहा है । सत्यवतीके साथ दया प्रवेश करती है । सत्य०-भगवति! महाराज एकान्तमें बैठे हुए तुन्हारा मार्ग निरीक्षण कर रहे है। इसलिये उन्हें शीघ्र चलकर संतुष्ट करो। दयामहराजकी जय हो! जय हो ! सर्व प्रकारसे बढ़ती हो! हम जैसी स्त्रियोंका आज किस कारणसे स्मरण किया गया? प्रबोध-आओ, प्यारी! तुम्हारे विना मेरी सम्पूर्ण क्रियायें व्यर्थ हो रही है। कहा भी है, सुवृत शील संतोष अरु, वर विवेक सुविचार । तुव विन सारे विफल हैं, तुही सदा सुखकार ।।। [दयाका अघोष्टि करके लजित रोना] प्रवोध-प्रिये तुम हमारे घरमें प्रधान हो, केवल सी नहीं हो। सम्यक्त्व-दये! संसारसमुद्रके सेतुखरूप स्त्री अरहंतदेवके चरणोंके समीप जाकर ये समस्त समाचार निवेदन करो । क्यों कि उनकी सहायताके विना अपनी जीत होना कठिन है।

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