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द्वितीय अंक।
। दया-आप जो आज्ञा देंगे, वही होगा। [दया जाती है और श्रीजिनेन्द्रदेवके समीप जाकर फिर प्रवेश करती है ]
दया-महाराज! सम्पूर्ण मनोरथ सिद्ध हो गये। प्रवोध-प्रिये! कहो, किस प्रकारसे हुए ? दया-किसी विद्वानका कथन है कि,
भाग्य उदयसों मनुजके, सुरगन होत सहाय ।
ताके उलटे होत हैं, स्वजन हु दुर्जेनराय ॥ राजा-अस्तु, वात क्या है, स्पष्ट कहो न?
दया-प्रभो! मैने यहांसे अयोध्या जाकर प्रातःकाल ही धर्मोपदेशरूपी प्रकाशके द्वारा जगतके जीवोंका अज्ञानांधकार उड़ानेवाले श्रीअरहंत भगवानका एक चित्र होकर इस प्रकार स्तवन
किया कि,
___ प्रभाती।
तेरी।
जंगजन अघहरन नाथ, चरन शरन तेरी। एकचित्त भजत नित्त, होत मुक्ति चेरी ॥ टेक ॥ होती नहिं विरद चारु, सरिता सम तुव अपार, जनम मरन अगिनि शांति, होति क्यों घनेरी ॥१॥ कीनों जिन द्वेषभाव, तुमते तिन करि कुभाव, . रवि सनमुख धूलि फैकि, निज सिरपर फेरी ॥२॥ शिवस्वरूप सुखदरूप, त्रिविधि-व्याधिहर अनूप,
विनकारण वैद्यभूप, कीरति बहु तेरी ॥ जगजन०॥३॥ • १इस प्रभातीमें मूलके दो गाथाओंका और गद्यका आशय मात्र लिया गया है। इसके सिवाय इच्छानुसार नवीन शब्दोंका समावेश भी किया है।