Book Title: Gyansuryodaya Natak
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 34
________________ ज्ञानसूर्योदय नाटक । ___ स्तुति करनेके पीछे सर्वज्ञदेवने मुझसे कहा, "हे भगवति हे जगत्परोपकारिणी दये! आज किस कारणसे इस ओर आगमन हुआ?" तब मैंने कहा, "भगवन् ! आपने मुझको शीलको संतोपको और प्रबोध राजाको आगे करके मुक्तिनगरमें प्रवेश किया था। परन्तु अब यह पापात्मा मोह हरिहरादिकी सहायता पाकर सपरिवार राजा प्रबोधको और सारे संसारको अपने अधिकारमें करना चाहता है । इससे महाराज प्रबोधको, वहुत कष्ट हो रहा है । आप कष्टके नष्ट करनेवाले है, इसलिये जो अच्छा समझें उचित समझें, सो करें ।" यह कहकर मै चुप हो रही। प्रवोध-पीछे क्या हुआ? दया-मुझसे अरहंत भगवानने कहा कि, "हे देवि! प्रबोधादिक उपकारको हम कभी नहीं भूलेंगे । हम उन सबके स्थान, भूत हैं, और हमारे भक्त भी उनके ठिकाने हैं । अतएव हमारे सबके सव भक्तजन प्रबोधादिके साथ शीघ्र ही परिवारसहित आवें । कुछ भी विलम्ब न करें।" सर्वज्ञकी उक्त आज्ञा सुनकर मैं यहां दौड़ी हुई आई हूं। सो अब शीघ्र ही चलनेकी तयारी कीजिये।[राजा प्रबोधका सैनासहित अयोध्याको प्रस्थान] [सब जाते हैं, परदा पड़ता है] चतुर्थ गर्भाङ्क। स्थान राजा मोहकी सभा। [अहंकार दमादि सामन्त वैठे हुए हैं। कलिकाल प्रवेश करता है ] कलि-महाराज! कुछ सुना भी' मोह-नहीं तो! कलि-कार्य कठिन हो गया।

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