________________
ज्ञानसूर्योदय नाटक । हुआ आ रहा है । जान पड़ता है, अपनी बातचीत सुनकर इसे कुछ कोप उत्पन्न हुआ है । ऐसी अवस्थामें अब यहासे चल देनेमें ही भलाई है । आओ चलें-
[दोनो जाने है] __ (विवेक और मतिका प्रवेश) विवेक-अरे नीच! तने यह विना विचारे क्या कह दिया था? भला, मेरे जीतेजी कुमति क्या कर सकती है? और वेचारा मोह किस खेतकी मूली है? सूर्यके प्रकागमें अंधकार क्या करे सकता है? इसके सिवाय,
माधवी। सुगुरूनके सुन्दर शासनमें, _ 'रुचि राचि रही सहचारिनि जैसे । अरु 'शांति' सलौनी 'जितेंद्रियता.'
उर 'जीवदया' सुखकारिनि तैसे ॥ वर तत्त्वप्रसूत 'प्रतीति' सखी, __ 'जिनभक्ति' सती 'शुभध्यान' हु ऐसे। सव साधन आज सुसाज रहे,
तव राज विमोहको होयगो कैसे ।। मति-प्यारे ! मैने, एक बात सुनी है कि, राजा मोह अपने मंत्रीपदपर कलिकालको नियुक्त करना चाहता है। और कलि। काल महा पापी है। यदि यह समाचार सच हुआ तो अपना बड़ा भारी अकल्याण होगा। विवेक-सखि! नहीं, यह झूठी शंका न जाने तेरे चित्तमें