Book Title: Gyansuryodaya Natak
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 28
________________ ज्ञानसूर्योदक नाटक । राजा आपके बलसे ही प्रबोधादिके साथ युद्ध करना चाहता है। इसलिये आप निर्वाहपर्यन्त अर्थात् जबतक विजय न हो, तबतक उसके पक्षमें रहें ।" यह सुनकर ब्रह्मादि देवोंने कहा, "हम स्वीकार करते है । प्रिये! हम लोग तो खभावसे ही प्रबोधादिक मारनेवाले है और फिर अब तो आपकी आज्ञा हुई है! हे देवि! मोह, क्रोध, लोभ, मद, मात्सर्य, राग, द्वेष, असत्य, अहंकार, दंभादि हमारे आजके मित्र नहीं है, बहुत पुराने है । हमारे मेंक्तजन भी उनसे गाढ़ प्रेम रखते है। इसलिये निश्चय समझ लो कि, हम सब मोहादिकका पक्ष करके प्रवोध-शील-संतोपादिको जड़से उखाड़कर फेंक देंगे।" यह सुनकर मायाने हर्पित हो घर आकर मुझे आपके समीप भेजा है। (विलास जाता है । अहकारका प्रवेश) अहंकार-(प्रणाम करके) खामिन् ! आप आज कुछ चिन्तातुर जान पड़ते है। नीतिशास्त्रमें कहा है कि, “पुरुषोंके लिये एक सत्त्व ही प्रशंसनीय पदार्थ है, पक्षका ग्रहण नहीं । देखो, वाहुवलिने सत्त्वका अवलम्बन करके भरत चक्रवर्तीको पराजित किया था।" और भी किसीने कहा है कि, " सूर्य अकेला है। उसके रथके एक पहिया है । सारथी भी एक पैरसे लंगड़ा है । सोकी लगाम है। घोडे भी कुल सात ही है, और आकाशका निरालम्बू । १ श्लाघ्यं सत्त्वं सदा नृणां न तु पक्षाग्रहः क्वचित्। - दोर्वली सत्त्वमालम्ब्य किं जिगाय न चक्रिणं ॥ २ रथस्यैकं चक्रं भुजगयमिताः सप्ततुरगाः। 'निरालम्बों मार्गश्चरणरहितः सारथिरपि । रविर्यात्येवान्तं प्रतिदिनमपारस्य नभसः। ' . क्रियासिद्धिः सत्त्वे वसति महतां नोपकरणे॥

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