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प्रथम अंक। । मार्ग है तो भी वह प्रतिदिन अपार आकाशके पार जाया करता है। इससे सिद्ध है कि, महापुरुषोंके कार्यकी सिद्धि उनके सत्वमें (तेजमें) रहती है। उपकरणोंमें सहायक वस्तुओंमें नहीं रहती है। (अर्थात् जो सत्त्ववान होता है, वही अपने अभीष्टकी सिद्धि कर सकता है ।" इसके सिवाय आप जिन लोगोंको पक्षकार बनानेका प्रयत्न करते हैं, वे स्वयं निर्बल है। देखिये, मै उन सबकी कलई खोले देता हूं। पहले कृष्णजीको ही लीजिये ! वेचारे जरासंध राजाके पुत्र कालयमनके डरके मारे सैन्यसहित सौरीपुरसे भागकर समुद्र के किनारे आ रहे थे। और रुद्र महाराज तो उनसे भी बलहीन तथा मूर्ख हैं । आपने एक बार सारी बुद्धि खर्च करके भस्मांगदको वरदान दे दिया था कि, तू जिसपर हाथ रक्खेगा वह तत्काल मर जावंगा । सो जब भस्मांगदने पार्वतीपर मोहित होकर आपहीपर वह कला आजमानेका प्रयत्न किया, तब बेचारे नाँदिया-गुदड़ी (कथा)-और पार्वतीको छोड़कर भागे और किसी तरहसे अपनी जान बचा पाये । ब्रह्माजीकी तो कुछ पूछिये ही नहीं। एकवार ईपीसे इन्द्रका राज्य लेनेके लिये आपने बनमें ध्यान लगाकर तपस्या करना प्रारंभ किया था । परन्तु इन्द्रकी भेजी हुई रंभा-तिलोत्तमाने अपने हाव भाव विभ्रम विलासोंसे
और सुन्दर गायनसे क्षणमात्रमें तपसे भ्रष्ट कर दिया । भला, जब ये खयं अपनी रक्षा नहीं कर सकते है, तब दूसरोंकी क्या सहायता करेंगे? इसलिये इनका भरोसा छोड़कर अपने सत्त्वका अवलम्बन करना ही समुचित है । मैं अकेला ही उन प्रबोधादिकोंके जीतनेके लिये बहुत हूं । सुनिये,