Book Title: Gyansuryodaya Natak
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 27
________________ १५ प्रथम अंक। अत्यन्त अभाव ही है, तब उसका नाश होना कैसे कहा जा सकता है? फिर भय किस बातका । दंभ-अरे पापी! असत्य मत बोल! विष्णुका शील प्रसिद्ध है। मुनते हैं, एकवार वालब्रह्मचर्यके प्रभावसे उन्हें यमुनाने मार्ग दिया था। +विलास-मेरी समझमें तो एसा कहना “ मेरी माता और बंध्या" कहनेके समान स्ववचनव्याघातक है । क्या यह तुमने नहीं सुना है कि, वृन्दावनको कुंज जहँ, गुंजत मंजु मलिन्द । मधन-पीन-कुच-युवतिसँग, रमत रसिक गोविन्द ॥ दंभ-अजी! गोविन्द गोपिकाओंमें आसक्त होनेपर भी 'ब्रमचारी थे। विलास-निम्सन्देह ! इसीलिये तो आपका वाक्य खवचनविघातक है। दंभ-अस्तु, और यह भी तो कहो कि, माया उनमें एकाएक कैसे अनुरक्त हो गई। विलास-स्त्रीके आसक्त होनेमें क्या देरी लगती है ? देखो "त्रियोंका चित्त स्वभावसे ही चंचल होता है, फिर समय पड़नेपर को पूछना ही क्या है? जो विना मद्यपान किये ही नृत्य करता है, वह नशेमें चूर होनेपर क्या न करेगा?" मोह-दंभ महाशय! इस समय इस विषयान्तरको जाने दीजिये । अच्छा विलास! फिर क्या हुआ? विलास-खामिन् ! हरि हर और ब्रह्मासे मायाने कहा "मोह

Loading...

Page Navigation
1 ... 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115