Book Title: Gyanpanchami Katha
Author(s): Maheshwarsuri, Jinvijay
Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai

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Page 59
________________ ३० नाणपंचमीकहाओ "किंचूणो विहु पणओ दुक्खं अइदारुणं मणे देइ । जो पुण मूलच्छिन्नो मरणं चिय कुणइ जुवईणं ॥ १७ ॥ वरि मा जाओ नेहो होऊणं मा पुणो ददं नहो। अदंसणं पि सेयं लोयणरिउणो निहाणस्स ॥ १।६८ ॥ अवराहेण विरत्तो दुक्खं न वि देइ वलहो जद वि । अवराहेण विणा पुण जीयं सो निच्चलं लेइ ॥ १॥६९ ॥ मणवल्लहो विरत्तो विणावराहेण कम्मदोसाओ। सरिओ सरिओ दुम्मइ अंगाई नट्ठसल्लो व्य ॥ १७ ॥ धन्ना ता महिलाओ जाणं पुरिसेहिं कित्तिमो नेहो। पाएण जओ पुरिसा महुयरसरिसा सहावेणं" ॥ १७ ॥ अर्थः - स्नेह ओछो थयो होय तो पण युवतीओना मनने अतिदारुण दुःख आपे छे तो ते स्नेह समूळगो नष्ट थाय तो तो मरण ज निपजावे. प्रथमथी ज प्रेम न बंधाय ते सारं; परंतु एक वखत दृढ थयेलो स्नेह नाश पामे ते तो ठीक नहि ज. पाछळथी नष्ट थनार निधिना दर्शन पहेलेथी ज न थाय ते श्रेष्ठ. प्रियजन अपराधे करीने जो विरक्त थाय तो ते दुःखकारक नथी थतो; पण अपराध विना रागरहित बनेलो वल्लभ मरणर्नु निमित्त अवश्य बने छे. पूर्वकर्मना. विपाके अपराध विना विरक्त बनेल प्रियजन जेम जेम याद आवे तेम तेम शरीरमां पेठेल शल्यनी जेम दुःख आपे छे. आटलं कह्या पछी सुंदरी पासे लेखक बोलावडावे छे "ते महिलाओ धन्य छे जेओने पुरुषो साथे कृत्रिम स्नेह छे” इत्यादि इत्यादि. कृत्रिम स्नेह होय अने ते नष्ट थाय तो मनने आघात न लागे परंतु प्रेमीजन साथे ओतप्रोत थई गया पछी प्रेमनो वेग कमी थतो देखाय तो अवश्य लागी आवे. तो पछी भ्रमर जेवा चंचळ अने लोलुपी खभावबाळा पुरुषो साथे पहेलेथी ज कृत्रिम स्नेह राख्यो होय तो पाछळथी दुःख सहन करवानो वखत न आवे. आ छेल्ली कहेवतमां गोठवेल अथवा सूचवेल नक्कर सत्य पूरता, सुंदरी साथे, लेखक संमत छे के नहि ते तो न कही शकाय परंतु विना कारणे रागरहित बननार प्रियजन महान् आपत्तिनुं कारण छे एटलं तो लेखक सुंदरीनी जेम जरूर सहृदयताथी मानता जणाय छे. आगळ चालतां आ बधा दुःखD कारण स्नेह छे एम कल्पी असंग भावने पोषनाराओने लेखक अंजली आपे छे. जुओ: "नेहो बंधणमूल नेहो लजाइनासओ पावो। नेहो दुग्गइमूलं पइदियहं दुक्खओ नेहो ॥ १७५ ॥ धन्ना ते वरमुणिणो मूलं नेहस्स जेहिं परिच्छिन्नं । धन्नाण वि ते धषणा बाल चिय जे तवं पत्ता" ॥ ११७६ ॥ अर्थः - स्नेह ए बंधन- मूळ छे; स्नेह तो लज्जा वगेरेनो नाश करनार पाप छे. दुर्गतिर्नु मूळ पण स्नेह ज छे अने हमेशनी दुःखदायक वस्तु पण ए अनुराग ज छे. माटे ते श्रेष्ठ मुनिओ धन्यवादने पात्र छे के जेमणे स्नेह, मूळ कापी नाख्युं छे अने ए धन्य मुनिओमां तेओ तो खास धन्यवादने पात्र छे जेमणे बाळपणमाथी ज तप आदर्यु छे. अहिंआ लेखकनी सहृदयता स्पष्ट तरी आवे छे. व्यावहारिक ज्ञानमा लेखक केटला प्रवीण हता तेनी तो सुंदरीना मुखमा मुकेल निनोक्त श्लोको आपणे वांचीए छीए त्यारे आपणने पूरेपूरी जाण थाय छे : "नवजुवईण वईणं बालाण य एगयाण नियमेण । निहोसाण वि दोसा संभाविजति लोएहिं"॥ ११८६ ॥ अर्थ :- नवयुवतिओ, यतिओ अने बालको भले निर्दोष होय पण जो एकला होय तो तेमां लोको दोषनी संभावना करे छे. आगळ वधी लेखक एक शाश्वत सत्य सुंदरीना मुखे उच्चारे छे. तेओ कहे छे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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