Book Title: Gyanpanchami Katha Author(s): Maheshwarsuri, Jinvijay Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith MumbaiPage 68
________________ प्रस्तावना संधने प्रथम वंदन करे छे तो पछी बीजा माणसोए तो तेम करवुज जोईए एमां नवाई शी? अर्धमागधीमां लखायेला आगमग्रन्थोने संस्कृतमा रूपांतरित करवानी इच्छा करनार सिद्धसेन दिवाकरने शिक्षा करनार पण संघ ज हतो.५ अर्थात् चतुर्विध संघनी कल्पना अने स्थापना धर्मना संरक्षण माटे ज छे; माटे चतुर्विध संघ तरफनो भक्तिभाव दरेक धर्मी पुरुषे बताववो ज जोईए. विक्रमीय छट्ठी शताब्दिनी प्रथम पच्चीसीमां लखाएल देववाचक क्षमाश्रमणना नंदीसूत्रमा संघन काव्यमय वर्णन करवामां आवेलुं छे जेनो भावार्थ आ प्रमाणे छेः- "संघखरूप महामंदरगिरिने विनयपूर्वक वंदन करूं छु. (ते संघ केवो छे ? ) सम्यग्दर्शन ए ज श्रेष्ठ वज्र छ जेनु; द्रढ, रूढ, गाढ अने अवगाढ जेनुं पीठ छे; धर्म ए ज तेना उंचा शिलातलोथी शोभनारा अने चमकनारा चित्रविचित्र कूट छे; सद्भावयुक्त शील ए तेनुं सुगंधयुक्त नंदनवन छे; जीवदयारूपी तेनी सुंदर कंदराओ छे अने उत्साही मुनिवररूपी मृगेन्द्रोथी भरायेली छे; कुतर्कनो विध्वंस करनार सेंकडो हेतुओ ते मंदरगिरिना धातुओ छे; सम्यग्दर्शन तेनुं रत्न छे; औषधिथी परिपूर्ण गुफाओनी गरज लब्धिओ सारे छे; संवररूपी श्रेष्ठ जलनो वहेतो अखंड प्रवाह ए तेनो हार छे; श्रावकगणरूपी शब्द करनार मोरोथी तेनी खीणो गाजी रही छे विनयविनम्र यतिओने तेना शिखर साथे सरखाव्यां छ; अनेकविध सद्गुणो तेना कल्पवृक्षोनां वन छे अने ज्ञान एज श्रेष्ठ मणिओथी सुशोभित अने स्पृहणीय तेनी विमल चूलिका छे."१५ __ उपर्युक्त वर्णन घणु ज अलंकारमय छे छतां तदन साचुं छे. संघ ए सर्वख छे. संघ पाछळनी भगवान् महावीरनी मूळभूत कल्पनाने आपणे बराबर तपासीए तो संघनी किंमत अने महेश्वर सूरिए करेली संघप्रशस्तिनी यथार्थता आपणने बराबर समजाय. भगवान् महावीरे वर्णने उडाडी त्यागना सिद्धांत उपर पोतानी संस्थाना बे मुख्य वर्ग पाड्या. एक घरबार विनानो, कुटुंबकबीला रहित, अपरिग्रही, पर्यटनशील, अनगार वर्ग अने बीजो परिवारमा राचनार, एक ठेकाणे स्थान जमावीने लगभग स्थिर जेवो अगारी वर्ग. प्रथम वर्ग संपूर्ण त्यागी. एमां पण स्त्री अने पुरुष बन्ने आवे. अने ते श्रमणी, श्रमण,- साध्वी, साधु कहेवाय. ज्यारे बीजो वर्ग संपूर्ण त्यागी नहि परंतु त्याग करवानी उत्कट अभिलाषावाळो. एमांय स्त्री-पुरुष बन्ने आवे. तेमना पारिभाषिक नाम छे श्राविका अने श्रावक. मूळ कल्पना तो ब्राह्मणोना चर्तुवर्णाश्रम उपरथी ज करवामां आवेली परंतु तेने एवो अनोखो ओप आपवामां आव्यो के जेथी जैनधर्मना संरक्षण माटे तेनो बराबर उपयोग थई शके. साधुसंघनी व्यवस्था ९४ अह पंचहिं हारेहिं पंचहिं रयणेहिं तह विभूसेउं । संघस्स कुणइ पूर्य जहसत्तीए महासत्तो ॥ संघो महाणुभावो नाणाइतियस्स जेण आहारो। पूइजते तमि उ नाणाई पूइयं होइ॥ तह उवयारपरो वि हु संघो जीवस्स होइ भव्वस्स। वच्छल्लं अणुसलुि उवबूहणमाइ कुणमाणो ॥ अन्नं च तियसनमिओ केवललच्छीइ संजुओ विमलो। तित्थयरो विहु भयवं आईए वंदए संघं ॥ तम्हा सइ सामत्थे संघं पृएह सव्वकज्जेसु । पाविह तओ उ मोक्खो भोत्तूणं विसयसोक्खाई॥ -नाणपंचमीकहा, १; २३-२७. १९५ जुओ पादनोंध, ८५. ९६ नंदीसूत्र (आ. स. प्र.), पत्र ४..... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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