Book Title: Gyanpanchami Katha Author(s): Maheshwarsuri, Jinvijay Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith MumbaiPage 65
________________ ३६ नाणपंचमीकहाभो कोना हृदयने सुख आपतुं नथी ? परोपकाररत पुरुषे तो आ लोकने विषे ए ज भाषा बोलवी जोईए के जेनाथी बालादिक सर्वने विशेष बोध थई शके." उपर्युक्त शब्दोमां प्राकृतभाषा तरफनी पोतानी अभिरुचि श्री महेश्वर सूरिए असंदिग्धपणे अने खूब ज आग्रहपूर्वक बतावी छे. एटले प्राकृतभाषानी उपयोगिता, तेनो संस्कृत साथेनो संबंध, तेनी हृदयंगमता, सुखबोधकता अने तेना तरफना सर्वव्यापी आदरभाव वगेरे विषे - खूद भगवान् महावीरथी मांडी प्राचीन, अर्वाचीन जैन - जैनेतर विद्वान वगेरेए जे काई कयुं छे तेनी हूंक नोंध, लेखकना प्राकृत तरफना प्रेमने पूरो न्याय आपवा, लेवी अत्रे आवश्यक छे. अहंतो धर्मनी प्ररूपणा अर्धमागधी (प्राकृतनो ज शौरसेन्यादिनी माफक एक भेद ) भाषामां करे छे. औपपातिकसूत्र जणावे छे के भगवान् महावीर कूणिकने अर्धमागधी भाषामां धर्मोपदेश आपता हता." अर्धमागधी भाषा जे बोले - बापरे तेने “ भाषार्य" (भाषा+आर्य) कहेवा एम प्रज्ञापनाकार श्यामाचार्य कहे छे. भगवतीसूत्रमा कर्तुं छे के देवो पण अर्धमागधी भाषाने प्रिय गणे छे अने बोलाती (कथ्य) भाषाओमां ते ज भाषाने विशिष्ट स्थान छे. २ आगमो माटे अर्धमागधी भाषा पसंद करवामां भगवान् महावीरनी सफळ दीर्घदृष्टिर्नु आपणने अमोघ दर्शन थाय छे. दृष्टिवाद नामना बारमा अंग सिवायना बधा कालिक, उत्कालिक अंगसूत्रोने प्राकृतमा बोधवामां अने रचवामां स्त्री-बाल वगेरे जीवोने ते बांचवामां सरळता रहे ए ज एक शुभाशय हतो.१ दशवैकालिक टीकामां याकिनीसूनु हरिभद्रसूरि पण एक श्लोक उद्धृत करी ए ज तात्पर्यनुं कहे छे." सर्व सिद्धान्त ग्रंथोने संस्कृतमां रूपांतरित करवानी इच्छामात्र ज सेवनार सिद्धसेन दिवाकरजीने श्री महानुभाव संघे पारांचिक नामर्नु प्रायश्चित फरमाव्युं हतुं. आ घटना श्री संघना सर्वोपरिपणानी जेटली द्योतक छे तेटली ज सौ कोईए अर्धमागधी भाषा ज वापरवी ए बाबतना आग्रहनी व्यंजक छे- समर्थक छे. अहिं तो, गणधरो, पूर्वधरो के विद्वान मुनिवरोने संस्कृत भाषा आवडती नो'ती एम नो'तुं. तेओए संस्कृतमा पण प्रकांड विद्वत्ताथी भरपूर भाष्यो, टीकाओ वगेरे तेम ज अनेकानेक संग्रहग्रन्थो लख्याना दाखलाओ प्रकट थया छे अने कोण जाणे केटलाय हजु अप्रकट पण हशे! सकयकव्वस्सत्थं जेण न जाणंति मंदबुद्धिया। सव्वाण वि सुहबोहं तेण इमं पाइयं रइयं ।। गूढत्थदेसिरहियं सुललियवन्नेहिं गंथियं रम्म। पाइयकव्वं लोए कस्स न हिययं सुहावेइ ?॥ परउवयाररएणं सा भासा होइ एत्थ भणियव्वा । जायइ जीए विबोहो सव्वाण वि बालमाईणं ॥ -नाणपंचमीकहा, १; ३-५. ७९ समवायांगसूत्र, ३४. (आगमोदय समिति प्रकावित) पृ. ६०. ८. औपपातिकसूत्र (आ. स. प्र.) पृ. ७७. ८१ प्रज्ञापनासूत्र (आ. स. प्र.) पृ. ५६. ८२ भगवतीसूत्र (आ. स. प्र.) पृ. २३१. ८३ वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकरमा उद्धृत, उ. १५. ८४ हरिभद्रसूरिकृत दशवैकालिक टीका, पत्र १०१. ८५ प्रो. गोपाणी अने आठवले अनुवादित सन्मतितर्क (पं. सुखलालजी भने बेअरदासजी संपादित) नी अंग्रेजी प्रस्तावना, पृ. २७० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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