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ज्ञानानन्द रत्नाकर 1
तिन का दर्शन तथा स्मर्ण किये अघ भाजत हैं || ३ || ढाई द्वीप में एक सौ साठ विदेह तिन में तीर्थंकर बीस || आठ २ में एक जिनवर राजे त्रिभुवनके ईश || कोड़ि पूर्व सब आयु धनुष पांचसौ काय त्रय छत्तर शीश दोनों ओरी अमर ढोरते चमर बत्तिस बत्तीस ॥ नाथूराम जिन भक्त जहां जिनवचन मेघ सम गाजत हैं ॥ तिन का वर्णन तथा स्मर्ण किये अघ भाजत हैं ॥ ४ ॥ चौसडकी लावनी ॥ १२ ॥
चौरासी लाख योनि में चौसड़ खेलत काल अनादि गया || चारों गति के चार पर से न अभी तक पार भया ॥ (टेक)
देव धर्म गुरु रत्नत्रय तीनों काने बिन पहिचाने ॥ आराधना चारों नहीं हिरदे में धरे चारों काने ॥ पंच महाव्रत पंजड़ी बिन नहीं पाया पंचम निज थाने | पट मत छकड़ी के बोध बिन रहा अभी तक अज्ञाने ॥ पंच दुरी सत्ता के बोधबिन सत्ता का ना सत्त छया ॥ चारों गति के चार गति से न अभी तक पार भया ॥ १ ॥ पांच तीन अथवा छग्दो अट्ठाके विना जाने भाई ॥ बसु कर्म न नाशे नहीं बसु गुण विभूति अपनी पाई ॥ पाँच चार अथवा छ तीन जाने विन नव निधि बिनझाई || नव ग्रीवक जाके चतुर में फिर भ्रमण किया आई || छ चारि दशविधि धर्म नजाना दशविधिपरिग्रह भार ठया ||