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ज्ञानानन्द रत्नाकर।
धार त्रय योग बनता था श्रीजिनधाम, लगा था काम, तहां तमाम, जुड़े थे लोग । तिन यह मन्सूबाठान, कि श्रीभगवान को छत पर आन, करो उद्योगा यहां पूजनकी विधि नहीं, बनेगी सही, सवन यह कही, समझ मनोग।
सुन भाई, जिन प्रतिमाको दो जने उठाने गये ॥ . सुन भाई, तिन से जिनवर किंचित नाचिगते भये ॥
सर्पट। लगे उठाने लोग बहुत तब कर २ के अति शोर ॥ हुआ प्रभु का आसन निश्चल चला न किंचित् जोर ॥
तव स्वप्न सुरों ने दीना। तुम हुए सकल मतिहीना ॥ यह कम चौड़ा है जीना। कैसे ले चढ़हो दीना। इससे यही पूजन सार, करो नर नार, हर्प उर धार । जो चाहो तरण । तुमहो त्रिभवन के नाथ ॥३॥ ऐसे अतिशय बहु भांति, जहां गुण पांति, करे सुर शांति चित्त अति धरें। जहां श्रावक नर त्रिय आय, द्रव्य बसु ल्याय, वचन मन कायसे, पूजें खरें। जब आवे भादों मास, होंय अव नाश सर्व उपवास पुरुषत्रियकरानाना विधि मंगल गाय, तूर वजाय, वचन मन काय से पूजें खरें।
सुन भाई, कार्तिक फाल्गुण आपाढ़ अंत दिन आठ।