Book Title: Gyanand Ratnakar Part 02
Author(s): Nathuram Munshi
Publisher: Khemraj Krishnadas

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Page 92
________________ ८८ ज्ञानानन्द रत्नाकर। नाथूराम ज्यों दीपसेजी, जोक्त दीप न हान ॥ ४॥ दादरा ॥१॥ करत चेत न प्राणी बहिरमुख ॥ (टेक ) तन धन यौवन लोग कुटुम सब, क्षणभंगुर जिंदगानी ॥३॥ विषय भोग में मन अहो निशि पर संगति रुचि ठानी ॥२॥ कुगुरु कुदेव कुधर्म जजे नित, शून्य हृदय दुर ध्यानी ॥३॥ नाथूराम कहें मूढ़ सुनेना, हित कर्ता जिन वानी ॥४॥ तथा ॥२॥ प्रेम कर जिनवानी सुनो भवि॥ (टेक ) भव अज्ञान ताप तम नाशक, चंद्रकला सुख दानी ॥३॥ भवि चातकके तुष्ट करनको, स्वात रिक्षका पानी ॥२॥ जन्मन मरन जरा गद नाशक, भाषी केवल ज्ञानी ॥३॥ नाथूराम जिन भक्त न नित, तास पद रुचिठानी ॥४॥ तथा॥३॥ जिन दर्शन सुखकारी जगतमें। (टेक) जिन मुखलखत नशत मिथ्यातम, प्रगटति सुमति उजारी सम्यक रत्नत्रय निधि दाता, अष्ट कर्म क्षयकारी॥२॥ जीव अनेक तरे दर्शनसे, पाया शिव सुख भारी ॥३॥ नाथूराम जिन भक्त दरशसे प्रगटत सुख अधिकारी ॥४॥ पद !!३॥ नेमि प्रभू विन कैसे रहों मैं ॥ (टेक) नौ भवसे मेरी प्रीति लगी है, ताका अंतर कैसे सहोमैं ॥३॥

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