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ज्ञानानन्द रत्नाकर। धीस टोंक से बीस जिनेश्वर अरु असंख्य मुनिरायरे ॥ नित्य निरंजन सिद्ध भये हैं आठो कर्म खिपायरे ॥३॥ जो भवि वंदना करें तहां की शुद्ध वचन मन कायरे॥ नक त्रियंच तजे गति दोनों सुर नर के सुख पायरे॥२॥ निकट भव्य वह कुछ भव घर के होहै शिव पुर रायरे ।। यासे भव्य सफल भव कीजै श्रावक कुल में आयरे॥३॥ नाथूराम जिन भक्त तहां के वंदन को हपायरे ॥ वार २ अनुमोदन राखो फिर २ वदो जायरे ॥४॥
पद ॥१॥ हे प्रभु जनकी विनय सुनीजै । जन्म जलधि के पारकरी
(टेक) भ्रमण करत चिरकाल व्यतीतो, तुम विन यह भव फंद नछीजै॥१॥ गणधरादि मुनि तुम गुण गावत,यासे प्रभु इतना यश लीजै ॥२॥ अष्ट कर्म अरि नित्य सतावत, इन नाशन को अनुभव दीजै ॥३॥ जब तक ये खल कमें नशेना, नाथूराम को सेवक कीजै ॥४॥ . चौबीस तीर्थकर स्तुति (विनती)
दोहाचौबीसो जिन पद कमल, वन्दन करों त्रिकाल । करो भवोदधि पार अय, काटो वसु विधि जाल ॥ १॥
(चाल जगति गुरुकी) - ऋषभ नाथ ऋषि ईश तुम ऋषिधर्म चलायो।