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श्रीः। - नूतन कविता। ज्ञानानन्दरत्नाकर। , द्वितीय भाग मुंशीनाथूरामजिनभक्तको
यथा नाम तथा गुण ।
. इसमें . ASH - अत्युत्तम मनोरंजन दुःख भंजन लावनी और अनेक
प्रकारके पद, भनन ज्ञानवर्द्धक सभ्यलोगोंके उपकारावं वर्णित हैं
जिसको खेमराज श्रीकृष्णदासने
बम्बई निज "श्रीवेंकटेश्वर” यन्त्रालयमें
छापकर प्रकट किया। :संवत् १९५२ शके १८१७ . .
इस पुस्तकका रजिष्टरी हक यन्त्राधिकारीने स्वाधीन रक्खा है.
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ज्ञानानन्दरत्नाकरकी
अनुक्रमणिका।
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संख्या. विषय. पृष्ठांक. संख्या. विषय, पृष्ठांक.: १ शाखी.... .... .... .... १२१ चौवीस तीर्थकरकी लावनी २८ ३दौड .... .... .... .... १/३२ जिन भजनका उपदेश मकी
३ श्रीऋषभदेवस्तुति ॥ लावनी १ दुअंग लावनी ... ....३१ • ४ पारसनाथकी लावनी .... ३/२३ जिन प्रतिमाकी स्तुति ला५ चौबीस तीर्थकरके चिह्नीं- वनी.... .... .... .... ३२
की लावनी.... .... .... ३ २४ कलियुगकी लावनी .... ३३ ६ जिन भजनके उपदेशकी २५ ऋषभनायके पंच कल्याण
लावनी .... .... .... ४ की लावनी ..... .... ३५ ७ तथा लावनी.... .... .... ५.२६ कुटिल ढोंगी श्रावकको ला८ शाखी.... .... ....
। वनी.... ... .... .... ९.दौड़ .... .... .... .... ६:३७ जिनेन्द्र स्तुति लावनी .... दृष्ट १० पंचनमस्कारकी लावनी
२८ तथा .... .... .... .... ११ अरिहंतके ४६ गुण और १८ २९ भव्य स्खंति-लावनी .... दोष रहितकी लावनी ... ९
३० दर्शनको लावनी .... .... १२ श्रीजिनेंद्रस्तुति लावनी .... ११३१ श्रीहकि जिन मंदिरके अ१३ तथा .... .... .... .... १२
तिशयको लावनी .... ४७ १४ सिद्धाको स्तुति लावनी.... १३/३२ जिन दर्शनकी लावनी .... ५० १५ विहरमान २० तीर्थकरको
२३ जिन भजनका उपदेश ला. लावनी .... .... ....
वनी.... .... ... .... ५१ १६ चौसडको लावनी.... .... १६.३५ तथा .... ... ... .... ५२ १७ उपदेशी लावनी .... ....
३५ चौबीसौ तीर्थंकरको लावनी १८ चन्द्रगुप्तके १६स्वप्नोकीला
३६ देवधर्म गुरु परीक्षाकी ला. वनी.... .... .... ....१९/ वनी.... ........ .... ५४ १९ राक्षस वंशीनको उत्पत्तिकी ३७ जिनेन्द्र स्तुति लावनी ....५६
लावनी .... .... .... २०३८ ऋषभदेवस्तुति लुप्त वर्ण २० वानर वंशीनकी उत्पत्तिकी मालाम लावनी ... ". ५९
लावनी .... .... .... ३३ ३९ श्रीनमीधरकी लावनी... ५९
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(२)
संख्या, विषय. पृष्ठांक. संख्या. विषय. '' पृष्ठांक. ४० दर्शनाष्टक दोहा .... .... ६१ १६६ श्रीमहावीर स्वामौकी स्तुति ४१ हजूरी छप्पय .... .... ६२ / ६७ प्रभाती ... .... ४२ श्रीजिन दर्शन दोहा .... ६२ | ६८ तथा .... .... .... .... " ४३ चौवीस जिनेन्द्रकी स्तुति १६९ तथा .... ...
गौरीमें .... ... .... ६४ ७० तथा .... ४४ अजितनाथ स्तुति .... .... ६४ |७१ सावन । ४५ श्रीसंभव नाथ स्तुति .... ६५/७२ तथा .... ५६ श्रीमभिनंदन नाथ स्तुति .... ६५ / ७३ होली ... .... ४७ श्रीसुमति नाथ स्तुति .... ६६ / ७४ होली२ .... ४८ श्रीपद्मप्रभु स्तुति .... .... ६६
७५ उपदेशी पद ... ४९ श्रीसुपारसनाथ स्तुति
७६ उपदेशी भजन ५० श्रीचन्द्रप्रभुनाथ स्तुति
(७७ पद .... ... ५१ श्रीपुष्पदंत स्तुति .... ५२ श्रीशीतल नाथ स्तुति ....
७८ कहरवा .... ५३ श्रीश्रेयान्स नाथ स्तुति ....
७९ दादरा .... ५४ श्रीवास पूज्य स्तुति ....
८० पद .... .... ५५ श्रीविमल नाथ स्तुति
८१ आरती .... ५६ श्रीअनंत नाथ स्तुति
८२ बधाई .... ... ५७ श्रीधर्मनाथ स्तुति .... ८३ पद .... .... ५८ श्रीशांतिनाथ स्तुति ८४ देशका सोरठा ५९ श्रीकुंथुनाथ स्तुति .... ८५ मलार ... .... ६० श्री अरहनाथ स्तुति
८६ गजल.... .... ६१ श्रीमल्लिनाथ स्तुति.... ८७ पद .... .... .... ६२ श्रीमुनि सुव्रतनाथ स्तुति ७२८८ कवित्त .... .... ६३ श्रीनेमिनाथ स्तुति .... .... ७३ ८९ पद .... .... ६४ तथा .... .... .... .... ७३/९० चौवीस तीर्थकरकी स्तति ६५ श्रीपारसनाथ स्तुति .... ७४ (विनती)..... .... .... ९४
इति।
मामला
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श्रीः।
(.ओनमःसिद्ध ज्ञानानन्दरत्नाकर।
द्वितीयभाग।
शाखी। . परमब्रह्म स्वरूप तिहुँ जग भूपहो जंग तारजी ॥
महिमा अनन्त गणेश शेष सुरेश लहंत न पारजी ॥
मैं दास तेरा.चरण चेरा हरो मेरा भारजी ॥ · · जिन भक्त नाथूराम को जन जान पार उतारजी ॥१॥
___ . दौड़। . . प्रभु मैं शरण लिया थारा । जन्म गद मरण हरों म्हारा ॥ प्रभु मैं सहा दुःख भारा । किसी से टरा नहीं टारा।। विरदसुननाथूरामजिनभक्ता भजन थारेमें हुएआशक्तजी
. . श्री ऋषभदेवस्तुति ॥ लावनी ॥ १ ॥ श्री मरुदेवीके लाल नाभिके नन्दन । काटो आगोविधिजा ल नाभिके नन्दन ॥ टेक । सुर अरचे तुम्हें त्रिकाल नाभिकेनन्दन। सौइंद्र नवामें भाल नाभिके नन्दन ॥
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२ ज्ञानानन्द रत्नाकर। . तुम सुनियत दीनदयालु नाभिके नन्दन । स्वार्थ विन करत निहाल नाभिके नंदन ॥ कानै मेरा प्रतिपाल नाभि के नन्दन ॥ काटोआठो विधि जाल० ॥ १॥ लखि तुम तनु दीप्ति विशाल नाभिके नन्दन ॥ हो कोड़ि काम पामाल नाभिके नन्दन ॥ त्रिभुवन का रूप कमाल नाभिके नन्दन । मानों सांचे दिया डाल नाभिके नन्दन ॥ दर्शन नाझे अब हाल नाभिके नन्दन । काटोआठो विधि जाल नाभिके० ॥२॥ तनु वत्र मई मय खाल नाभिके. नन्दन । ताये सोने सम लाल नाभिके. नन्दन । मल रहित देह सुकुमाल नाभिके नन्दन । बाड़ें ना नख अरु बाल नाभिक नन्दन ॥ यह शुभ अतिशयका ख्याल ना. भिक नंदन । काटो आठो विधि जाल नाभि० ॥३॥जो. तुम गुण माणकी माल नाभिके नंदन । कंठ धरैप्रातःकाल
नाभिके नन्दन । लहि मुर नर सुख तत्काल नाभिके न' न्दन । पावे शिव संयम पाल नाभिके नन्दन ॥ वहे नाथूराम
का सवाल नाभिके नन्दन । काटो आठोविधि जाल नाभिके नन्दन ॥४॥
पारसनाथकी लावनी ॥ २॥ .. तुम सुनियत तारण तरण लाल मामाके । मैं आया थारे शरण लाल बामाके ॥ टेक । तुम त्रिभुवन मानंद करन गउवामाके । विख्यात विरद दुःख हरण
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ज्ञानानन्द रत्नाकर। लाल बामाके ॥ तनु इमाम सजल धन वरण लाल बामाके । लखि दरश लगें अघडरन लाल बामाके ॥ आनंदकती घरघरन लाल बामाके में आया थारे शरण लाल बामाके ॥ १॥ तुम बच सुन युग अहि करन लाल बामाके । दम्पति ना पाये जरन लाल बामाके।तुन कुमर काल-तप धरन लाल बामाके । कच हुँच किये मृदुकरन 'लाल बामाकेबिहरे भू भवि उद्धरन लाल बामाके। मैं आया थारे शरण लाल बामाके ॥२॥ सुनि ध्वनि तुम निर अक्षरन लाल बांमाके । शिवली तद्भव बहु नरन लाल बामाके ॥ बहुतों तजि वस्त्राभरण लाल बामाके । दृढ़ धारा सम्यक चरण लाल बामाके । अनुव्रत धारे चौवरण लाल 'बामाके । मैं आया थारे शरण लाल बामाके ॥३॥ सम्यक्त लिया बहु सुरन लाल बामाके। पशुव्रती भये बसि अरन लाल बामाके ॥ वसु अरि हरि शिव त्रिय परन लाल बामाके । भये सिद्ध. मिदा भय मरन लाल बामाके।। नवें नाथूराम नित चरण लाल वामाके | मैं आया थारे
शरण लालवामाके ॥४॥ . .. चौबीस तीर्थंकरके चिह्नोंकी लावनी ॥ ३॥ .
_श्री चौवीसो जिन चिह्न चितारि नमोंमें । बहु विनय / सहित आठोमद टारि नमों मैं || टेक। श्री ऋपभना। थके वृषभ, अजित गजगाया । संभवके हय अभिनन्दन । कपि बतलाया ॥ सुमति के कोक पद्मप्रभु पद्मसुहाया।
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ज्ञानानन्द रत्नाकर. सांथिया सुपारसके लक्षण दरशाया, ॥ चंद्रप्रभु के शशि हिरदे धारि नमों मैं । बहु विनय सहित आठो मद टार. नमों मैं ॥१॥ श्रीपुष्पदंत के मगर चिह्न पद जानो। शीतल जिनके श्रीवक्ष चिह्न पहिचानो। श्रेयान्नाथ के पद गेंडाउरआनो।श्रीवास पूज्य पदलक्षण महिष वखानो। श्री विमल नाथ पद सूर विचारि नमों मैंबहु विनय सहित आठो मद टार नमों मैं ॥२॥सेई अनंत जिनवर के लक्षण गाऊं। धर्म के वज्र मृग शांति चरण चित लाऊं। अज कुंथु नाथके अरहमत्स्य दरशाओमल्लिके कुंभमुनि सुव्रत कच्छ बताऊं ॥ नमि नाथ पद्मदल चिह्न चितार नोंम।वहुवि० ॥३॥ श्री नेमि शंख फनि पार्सनाथपदराजे । हरिवीर नाथके चरणों चिह्न विराज। ऐसे जिनवर पदनवत सर्वदुःख भाजै । फिर भूल नआवै पास लखत हग लाजै ॥ कहेंनाथूराम प्रभु जग से तार नमों में। बहु विनय सहित आगे मटार नमों मैं ॥४॥
जिन भजनके उपदेशकी लावनी ॥ ४॥ . मन वचन काम नित भजनकरो जिनवरका । यह सफल करो पर्याय पाय भवनरका । (टेक) निवसे अना दिसे नित्य निगोदमझारे । स्थावर में तनुधारे पंचप्रकारे । फिर विकलत्रयके भुगतें दुःख अपारे। फिर भयो असेनी पंचेंद्री बहु बारे ॥ भयो पंचेंद्री सेनी जल थल अम्बरका'। यह सफल करो पयाय पाय भव नरका॥१॥फि
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.. ज्ञानानन्द रत्नाकर। । रक्रमसे सुर नर नारकके बहुतेरे। भवधर मिथ्यावश कीने । पाप घनेरे।। जिय पहुँचा इतरनिगोद कियेबहु फेरे । तहाँ । एक श्वास में मरा अठारह बेरेचिर भ्रमे किनारा मिलान | भवसागरका । यह सफलको पर्याय पाय भवनरका॥२॥
यों लख चौरासी जिया योनि में भटका । बहुवार उदरमा। ताके आधालटका । अब सुगुरुं सीख सुन करो गुणी जन । खटका। यह है झूठा स्नेह जिस में तूअटकानिहीं कोई कि; सी का हितू गैर और घरका।यह सफल करो पर्याय पाय । भवनरका ॥३॥ इस नरतनुके खातिर सुरपतिसे तरसें।
तिसको तुम-पाके खोवत भोंदू करसे । क्षणभंगुर सुख. को प्रीति लगाते घरसे। तजके पुरुषार्थ वनते नारी नर
से॥ मत रत्न गमाओ नाथूराम निजकरका । यह सफलक .. रो पर्याय पाय भवनरका।।। ..
तथा दूसरी लावनी ॥ ५ ॥ प्रभु भजनकरो तज विषय भोगका खटका चिरकाल भजन बिन तू त्रिभुवनमें भटका। (टेक) तूनें चारों गति में किये अनंते फेरा । चौरासी लाख योनि में फिरावहु वेरा।। जहां गया तही तुझे काल बलीने घेरा । भगवान भक्ति विन कौन सहायक तेरा ॥ अव कर आतम कल्याण मोहतजघटका। चिरकाल भजन विनतू त्रिभुवनमे भटका।।। सुत तात मात दारादिक सब परखारे। तन धन यौवन सब विनाशीकहैं प्यारे ॥ मिथ्या इनसे स्नेह लगावत क्यारे ।
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ज्ञानानन्द रत्नाकर। यहैं पत्थरकी नाव डुवावनहारे । इन बार २ तोहि भवसागर में पटका । चिरकाल भजनबिन तू त्रिभुवन में भटका ॥२॥तूनरक वेदना दुर्गातके दुःख भूलाानर पशुहोग में मझार अधोमुख झूला । अव किंचित मुखको पाय फिरेतूफूला । माया मरोर से जैसे वायु बघूला ॥ तू मानत ना ही बार २ गुरु हटका । चिरकाल भजन विन तू त्रिभुवनमें भटका ॥३॥ अव वीतराग का मार्ग तूनेपाया। जिनरा ज भजन कर करो सफल नरकाया । तूभ्रमें अकेला यहां अकेला आया ॥ जावेगा अकेला किसकी ढूढे छाया ॥ कहें नाथूराम शठक्यों ममता में अटका। चिरकाल भजन बिनतू त्रिभुवन में भटका ॥१॥ .
(शाखी) प्रथम नमों आरेहंत हरे जिन चारि घाति विधि ॥ बसु विधि हा सिद्ध नमों देहि अष्ट ऋद्धि सिधि॥ नमो शूर गुण पूर नमों उवझाय सदा जी॥ नमों साधु गुण गाध व्याधि ना होय कदाजी ।।.
(दौड़) पंच पद येही मुक्ति के मूल । जपो जैनी मत जावो भूल॥ नाम जिनके से शेश होफूल। करें निंदा तिनकेशिरधूल ॥ नाथूराम यही पंचनवकाराकंठ धर तरो भवोदधि पारजी॥
नाथूराम यही
कार की लावना बोकंठ धरें।
नमो कारके पांचोपद पेंतिस अक्षर जो कंठ धरें।
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ज्ञानानन्द रत्नाकर। सुर नरके सुख भोगि बसु अरिहरिके भवसिंधु तरें॥
(टेक). प्रथम णमो अरिहंताणं पद सप्ताक्षर का सुनो विषय ॥ अरिहंतन को हमारा नमस्कार हो यह आशय ॥ अरिहंत तिनको कहें जिन्होंने घाति कर्म अरि कोने क्षय ॥ निज वाणी का किया उद्योत हरन भविजन की भय ॥
शेर-जिन्हों के ज्ञान में युगपत पदार्थ विजगके झलक। • चराचर सूक्ष्म अरु पादर रहे बाकी न गुरुहल्का
भविष्यत भूत जो वते समय ज्ञाता घड़ी पलको
अनंतानंत दर्शन ज्ञान अरु धारी, सुख बल के॥ तीन छत्र शिर फिरें डरें बसु वर्ग चमर सुर भक्ति करें। सुर नर के सुख भोगि बसु अरि हरिके भवसिंधु तरें ॥ दुतिय णमो सिद्धाणं पदके पंचाक्षर जो सार कहे ॥ सिद्धों के तई हमार नमस्कार हो अर्थ यहे ॥ सिद्धि चुके कर काम सिद्ध तिन नाम तृष्टि शिव धाम रहे। अष्ट कर्म का नाश कर ज्ञानादिक गुण आठ लहे ॥ . . शेर-धरें दिक्षा जो तीर्थंकर जिन्होंके नामको भजकर ॥ • करें हैं नाश वसुअरिका सबल चारित्र दल सजकर ॥ · नमों में नाथ ऐसे.को सदा ही अष्ट मद तज कर ॥
सफल मस्तक हुआ मेरा प्रभूके चरणों की रजकर ॥ लेत सिद्ध का नाम सिद्धि हों काम विघ्न सब दूर टरें। सुर नर के सुख भोग बसु अरि-हरिके भव सिंधु तरें॥२॥
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% 34
ज्ञानानन्द रत्नाकर। तृतिय णमों आइरियाणं पद सप्ताक्षर का भेदं सुनो ॥ जिसके सुनते दूर होवे भव २ का खेद सुनो। आचार्यन को नमस्कार हो यह जन की उम्मेद सुनो। करों निर्जरा बंद कर के आश्रव का छेद सुनो। शेर-मुन्यों में जो शिरोमाण हैं यती छत्तीस गुणधारी॥ करें निज शिष्य औरों को कहें चारित्र विधि सारी॥ प्रायश्चितलेय मुनि जिनसगुरूनिजजानिहितकारी॥ हरें बसु दुष्ट कर्मों को वरें भव त्यांगि शिव नारी॥ ऐसे मुनिवर शूर धरें तप भूरि कर्मों को चूरि करें।
सुर नर के सुख भोगि बसु अरिहरिके भवसिंधुतरें३॥ तूर्य णमों उवझायाणं पद सप्ताक्षर का सार कहूं। उपाध्याय के तई हो नमस्कार हर बार कहूं ॥ आप पढें औरों को पढ़ावें अध्यातम विस्तार कहूं ॥ ऐसे मुनिवर कहावें उपाध्याय जगतार कहूं ॥ . शेर-पंच अरु बीस गुण धारी ऋषी उवझाय सो जानो । , महाभट मोहको क्षणमें परिग्रह त्यागकेहानो ॥
सप्त भय अष्ट मद तज कर करें तप घोर शूरानो॥
सहे बाइस परीषह को अचल परणाम गिरि मानो। शुक्फ ध्यान घर कर्म नाश कर ऐसे मुनि शिव नारि वरें। सुर नर के सुख भोगि बसु अरि हरिके भव सिंधु तरें॥ णमो लोयें सब्ब साहूणं पंचम पद के ये नव वर्ण ॥ .नमस्कार हो लोक के सब साधुन के बंदों चर्ण ॥
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ज्ञानानन्द रत्नाकर। साधे तप तज भोग जान भव रोग साधु सो तारण तर्ण ॥ अष्टा विंशत मूल गुणके धारी मुनि राखो शर्ण ॥ - शेर-सार ये पंच परमेष्टी भक्ति इनकी सदा पाऊं ॥.
नहो क्षण एक भी अंतर जब तलक मुक्तिनाजाऊं। मिले सत्संग धीमन का सवोंके चित्त में भाऊं।
जपों बसु याम पद पांचो भाव धर हर्ष से गाऊं ॥ नाथूराम शिवधाम वसनको णमोकार अहो निशि उचरें। सुर नरके सुख भोगि-बसु अरि हरिके भव सिंधु तरें॥६॥
अरिहंतके ४६ गुण और १८ दोष रहितकी लावनी॥ ७ ॥ छालिस गुण युत दोष अठारह रहित देव अरिहंत नमों ॥ त्रिभुवन ईश्वर जिनेश्वर परमेश्वर भगवंत नमः॥
.. (टेक) रहित पसेव देह मल वर्जित श्वेत रुधिर अति सुंदर तन॥ प्रथम संहनन प्रथम संस्थान सुगंधित तन भगवन ।। प्रियहित वचन अतुल बल सोहे एकसहस्त्र वसु शुभ लक्षण।। ये दश अतिशय कहे जन्मत प्रभुके सुनिये भविजन ॥ मति श्रुत अवधि ज्ञान युतजन्मत सुरनरादिघ्यावंत नमो।। त्रिभुवन ईश्वर जिनेश्वर परमेश्वर भगवंत नमों ॥१॥ दो सौ योजन काल पड़े ना करें प्रभूजी गगण गमन ॥ चौ मुख दरशें सर्व विद्या होवें ना प्राण वधन ॥ वर ऐश्वर्य न कच नख बढ़ते नहीं लागे टमकार नयन ॥
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१. ज्ञानानन्द रत्नाकर तनुको गया न पड़ती नहीं कवला आहार ग्रहन । केवल ज्ञान भये दश अतिशय ये प्रभुक्के राजंत नमः ।। त्रिभुवन ईश्वर जिनेवर परमेश्वर भगवंत नमों ॥ २॥ सकल अर्थ मय मागयी भाषा नाति विरोष वजा जीवन!! पटनुके फल पुष्प दिनकर शोभित अति सुंदर बन !! पुष्प वृष्टि गंधोदक वर्षा भने मंद सुगंध पान ।। जय जय होते नन मेदिनी विराज्यों इपेण ।। र कमल सुर पद तल प्रभुके सर्व, जीव दर्पत नमों। त्रिभुवन ईश्वर जिनेश्वर परमेश्वर भगवंत ननों ॥३॥ विमल दिशा भानाम बिना कंटा अचला कोनी देइन । मंगल इव्ये आठ त्रय चक्र अगाड़ी चले गगन ये चौदह देखन कुन अविशय मुनो चनुष्य अब मन ।। अनंत वर्णन, ज्ञान, सुख, बल प्रमुख राजे नुचि बन !! ऐसे गुण भंडार विराजत गिव स्मगा अंत नमों ।। त्रिभुवन ईश्वर जिनेश्वर परनेश्वर भगवर नमः ॥ ४ तरु अशोक भानंडल साढे तीन छन अरु सिंहासन ॥ चमरदिव्य ध्यान पुष्प पारदुंदुभी नभ वाजन । प्रतीहार्य ये भाठ सर्व अलिग गुग जिन बरके पाइन । जो भविषारे कंठ नित सो न करें भगर्ने भाषन ॥ ऐसे श्री अरिदैत जिनके गुम गान करत नित पंत ननों ।। त्रिभुवन ईश्वर जिनेश्वर परमेश्वर भगवंत ननों ५॥ क्षुवा तृपा भय सग झेप विस्मय नित्र मदनमुहावन ।।
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ज्ञानानन्द रत्नाकर। ११ आरति चिंता शोक गद स्वेद खेद जरा जन्म मरन । ' मोह, अगरह दोष रहित ऐसे जिनवर पंद करों नमन ॥ त्रिभुवन त्राता विधाता पाति कर्म जिन डाले हन । नाथूराम निश्चयं अनंत गुण सुमरत अब भाजंत. नमों ।। त्रिभुवन ईश्वर जिनेश्वर परमेश्वर भगवंत नमों ॥॥६॥
श्रीजिनेंद्रस्तुति लावनी ॥ ८॥ परम दिगम्बर वीतराग जिन मुद्रा म्हारी आंखोंमें ॥ बसी निरन्तर अनूपम आनँद कारी आँखोंमें ॥
(टेक) जा दरशत वर्षत सम्यक रस शिव सुखकारी आँखोंमें ॥ विषय भोगकी वासना रही न प्यारी आंखोंमें। जगअसार पहिचान प्रीति निज रूपसे धारी आंखों में ॥ तृष्णा नागिन जष्टि सन्तोषसे मारी आंखोंमें।. सब विकल्प मिट गये लखत जिन छवि बलिहारी आंखोमें बसी निरन्तर अनूपम आनंदकारी आंखों में ॥१॥ राग द्वेष संशय विमोह विभ्रमथे भारी आंखोंमें ॥ देखत प्रभुको लेश ना रहा उजारी आंखों में। कुयश कलंक रहा ना छवि लखि अचरज कारी आंखोंमें ।। यह प्रभु महिमा कहां यह शक्ति विचारी आंखों में॥ सहस्र नयन हरि लखत बाल छवि जिनवर थारी आंखोमें। वसी निरन्तर अनूपम आनंद कारी आंखोंमें ॥२॥ मंगलरूप बालक्रीड़ा तुम लखि महतारी आंखों में ॥
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१२ ज्ञानानन्द रत्नाकर। आनंद धारे-यथा लखि रत्न भिखारी आंखों में ॥ देव करें नित सेव शंक से आज्ञाकारी आंखोंमें। उजर न जिनके रहें हाज़िर हरवारी आंखों में । निर्त करत गति भरत रिझावत देदे तारी आंखों में ॥ बसी निरंतर अनूपम आनंदकारी आंखों में ॥३॥ केवल ज्ञान भये यह दुनिया झलकत सारी आंखों में। पलक न लागें न आवे नींद तुम्हारी आंखोंमें॥ द्वादश सभा प्रफुल्लित छविलखि सुर नर नारी आंखों में ॥ किंचित कोई दृष्टिना पड़े दुःखारी आंखोंमें ॥ नाथूराम जिनभक्त दरश लखि भये सुखारी आंखों में ॥ वसी निरन्तर अनूपम आनंदकारी आंखोंमें ॥४॥
तथा ॥ ९ ॥ नाश भये सब पाप लखी जिन मुद्रा प्यारी आंखों से ॥ मोह नींद का गया अताप हमारी आंखों से ॥
(टेक) परम दिगम्बर शांति छवी नहिं जाय विसारी आंखों से ॥ लुब्ध भया मन यथा मणि देख भिखारी आंखोंसे ॥ . होत कृतार्थ देख दर्शन तुम सुर नर नारी आंखों से ॥
परद्रव्यों को हेय लखि प्रीति निवारी आंखों से - निज स्वरूप में मन भये लखि सम्यक धारी आंखों से ॥ .मोह नींदका गया आताप हमारी आंखों से ॥१॥ कायोत्सर्ग तथा पद्मासन प्रतिमा थारी आंखों से॥ .
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ज्ञानानन्द रत्नाकर। १३ देखत होता दरश आनंद अधिकारी आंखों से ॥ ध्यानारूढ़ अकम्प दृष्टि नाशा परधारी आंखों से॥ . विस्मय होता देख छवि अचरजकारी आंखों से। देवों कृत शुभ अतिशय देखत सुख हो भारी आंखों से ॥ मोह नींद का गया आताप हमारी आंखों से ॥२॥ राग द्वेष मद मोह नशे तमभक्ति उजारी आंखों से ।। चिंता चंड़ी शक्ति संतोष से टारी आंखों से ॥ निज पर की पहिचान भई उर दृष्टि पसारी आंखोंसे ॥ जड मति मारी गई देखत धीधारी आंखों से॥ अब संसार निकट आयो जिन छवी निहारी आंखों से ।। मोह नींद का गया आताप हमारी आंखों से ॥३॥ सहस्राक्षकर निर्खत वासव छवी तुम्हारी आंखों से ॥ तृप्त न होता देख छवि महा सुखारी आंखों से ॥ भाज गई विपदा छवि देखत क्षण में सारी आंखों से ॥ कोई प्राणी दृष्टिना परेदसारी आँखोंसे। नाथूराम जिनभक्त दरश लखि कुमति विडारी आंखोंसे ॥ मोह नींदका गया आताप हमारी आंखोंसे ॥४॥
सिंदों की स्तुति लावनी ॥१०॥ अलख अगोचर अविनाशी सब सिद्ध वसत शिव थान में हैं। सर्व विश्व के ज्ञेय प्रति भासत जिन के ज्ञान में हैं।
(टेक) ज्ञानावरणी नाशि अनंती ज्ञान कला भगवानमें हैं।
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१४ . ज्ञानानन्द रत्नाकर। नाशि दर्शनावरण सब देखत ज्ञेय जहानमें हैं। नाशि मोहनी क्षायक सम्यक युत दृढ़ निज श्रद्धाण में हैं। अंतराय के नाश बल अनंत युत निर्वाण में हैं। आयु कर्म के नाश भये रहें अचल सिद्ध स्थानमें हैं। सर्व विश्वके ज्ञेय प्रति भासत जिनके ज्ञान में हैं ॥१॥ नाम कर्म हनि भये असूरति वंत लीन निज ध्यान में हैं। गोत कर्म हन अगुरु लघु राजत थिर असमान में हैं। नाशि वेदनी भये अवाधित रूप मन सुख खान में हैं। अपार गुण के पुंज अहंतन की पहिचान में हैं। अजर अमर अव्यय पद धारी सिद्ध सिद्ध के म्यान मेंहैं। सर्व विश्व के ज्ञेय प्रति भासत जिन के ज्ञान में हैं ॥२॥ अक्षय अभय अखिल गुण मंडित भाषे वेद पुराण में हैं। देह नेह विन अटल अविचल आकार पुमान में हैं। सर्व ज्ञेय प्रति भासत ऐसे ज्यों दर्पण दरम्यान में हैं। ज्ञान रस्मिके पुंज ज्यों किरणें भानु विमान में हैं। गुण पर्याय सहित युगपत द्रव्ये जानत आसान में हैं। सर्व विश्व के ज्ञेय प्रति भासत जिन के ज्ञान में हैं ॥३॥ तीर्थकर गुण वर्णत जिनके जो प्रधान मतिमानमेंहैं। . क्षमस्थन में न ऐसे गुण काहू पदवान में हैं। गुण अनंत के धाम नहीं गुण ऐसे और महान में हैं। धन्य पुरुष वे जो ऐसे धारत गुण निज कान में हैं। नाथूराम जिनभक्त शक्ति सम रहें लीन गुण गान में हैं।
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ज्ञानानन्द रत्नाकर। . १५ सर्व विश्वके ज्ञेय प्रति भासत जिन के ज्ञान में हैं ॥४॥
विहर मान २० तीर्थंकर की लावनी ॥ ११॥ विहरमान जिन ढाई द्वीप में बीस सदाही राजतहैं । तिन का दर्शन तथा स्मर्ण किये अप भाजत हैं। .
(टेक) जंबूद्वीप में विदेह बत्तिस आठ आठ में एक जिनेश । सदा विराजे रहें भवि जीवों को देते उपदेश॥ सीमंधर युगमंदिर स्वामी वाहु सुबाहु श्री परमेश ॥
चारि जिनेश्वर कहे तिन के पद वंदन करों हमेश। । वतै चौथा काल जहां नित देव दुंदुभी वाजत हैं । | तिन का दर्शन तथा स्मर्ण किये अब भाजत हैं॥१॥ । धातुकी खंड द्वीप में विदेह हैं चौसाठ अरु बसु जिनराज।।
आठ २ में एक तीर्थकर तिन में रहे विराज ॥ सुजात और स्वयंप्रभु ऋषभानन अनंत वीर्य महाराज ॥ विशाल सूरी प्रभू वज्र धर चंद्रानन राखो लाल ॥
छालिश गुण व्यवहार और निश्चय अनंत गुण छाजत हैं। तिन का दर्शन तथा स्मर्ण किये अघ भाजत हैं ॥२॥
आधे पुष्करद्वीप में चौसाठि हैं विदेह अरु वसु जिन नाथ। तिनको सुर नर वहाँ पूजें हम भी यहाँ नावें मांथ ॥ . चंद्रवाहु श्री भुजंग ईश्वर नेम प्रभू वीरसेन जी नाथ ॥ महाभद्र अरु देव यश अजित वीर्य पद जोड़ों हाथ ॥ जिन की प्रभा देख रवि शशि तारा नक्षत्र ग्रह लाजतहैं ।।
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'१६
ज्ञानानन्द रत्नाकर 1
तिन का दर्शन तथा स्मर्ण किये अघ भाजत हैं || ३ || ढाई द्वीप में एक सौ साठ विदेह तिन में तीर्थंकर बीस || आठ २ में एक जिनवर राजे त्रिभुवनके ईश || कोड़ि पूर्व सब आयु धनुष पांचसौ काय त्रय छत्तर शीश दोनों ओरी अमर ढोरते चमर बत्तिस बत्तीस ॥ नाथूराम जिन भक्त जहां जिनवचन मेघ सम गाजत हैं ॥ तिन का वर्णन तथा स्मर्ण किये अघ भाजत हैं ॥ ४ ॥ चौसडकी लावनी ॥ १२ ॥
चौरासी लाख योनि में चौसड़ खेलत काल अनादि गया || चारों गति के चार पर से न अभी तक पार भया ॥ (टेक)
देव धर्म गुरु रत्नत्रय तीनों काने बिन पहिचाने ॥ आराधना चारों नहीं हिरदे में धरे चारों काने ॥ पंच महाव्रत पंजड़ी बिन नहीं पाया पंचम निज थाने | पट मत छकड़ी के बोध बिन रहा अभी तक अज्ञाने ॥ पंच दुरी सत्ता के बोधबिन सत्ता का ना सत्त छया ॥ चारों गति के चार गति से न अभी तक पार भया ॥ १ ॥ पांच तीन अथवा छग्दो अट्ठाके विना जाने भाई ॥ बसु कर्म न नाशे नहीं बसु गुण विभूति अपनी पाई ॥ पाँच चार अथवा छ तीन जाने विन नव निधि बिनझाई || नव ग्रीवक जाके चतुर में फिर भ्रमण किया आई || छ चारि दशविधि धर्म नजाना दशविधिपरिग्रह भार ठया ||
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ज्ञानानन्द रत्नाकर। १७ चारों गति के चारि वर से न अभीतक पार भया॥२॥ . दश पौ ग्यारह के विन जाने गुण स्थान ग्यारह चढ़के ॥ फिर गिरा अज्ञानी मोह वश सहे दुःख नाना बढ़के ॥ दश दोवा कच्चे बारह विन जाने मोह भटसे अड़के ॥ बारम गुण थाने चढ़ा ना निज विभूति पाता लड़के ॥ पौ बारह के भेद विना ना तेरह विधि चारित्र लया। चारों गति के चार घर से न अभीतक पार भया ॥३॥ चौदह जीव समास चतुर्दश मार्गना नहीं पहिचानी॥ इस कारण चौदह चढ़ाना गुणस्थान भ्रम बुधिठानी॥ पंद्रह योग प्रमाद न जाने तिनवश आश्रव रति मानी ॥ सोलह कारण के विना भायें न कर्म की थिति हानी ॥ सत्रह नेम विना जाने नाह पाली किंचित जीवदया॥ चारों गति के चारि घर से न अभी तक पार भया॥४॥ दोष अठारह रहित देव अरिहंत नहीं हिरदे आने ॥ इस हेतु अठारह दोष लगरहे नहीं अब तक हाने । सम्यक रत्नत्रय पांसे अब सुगुरु दया से पहिचाने॥ आठो विधि गोटें नाशि गुण आठ वरों धरके ध्याने ॥ नाथूराम जिन भक्त पार होने को करो उद्योग नया॥ चारों गति के चारि घर से न अभी तक पार भया॥५॥
उपदेशी लावनी ॥ १४॥ जग मणि नर भव पाय सयाने निज स्वरूपध्यानाचहिये। जब तक शिव ना तवतलक नित जिन गुण गाना चहिये।
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ज्ञानानन्द रत्नाकर।
(टेक) आर्य क्षेत्र रु श्रावक कुल लहि वृथा न डिंहकाना चहिये। जप तप संयम नेम विन नहीं काल जाना चाहिये। भ्रमे दीर्ष संसार न पाया पार चिंत लाना चहिये। पुरुषार्थ को करो क्यों कायर बन जाना चाहिये। बार २ फिर मिले न अवसर यह शिक्षा माना चहिये ॥ जब तक शिव नातव तलक नित जिन गुण गाना चहिये। आप करो परणाम शुद्ध औरों के करवाना चहिये। सदा धर्म में रहो लवलीन न निसराना चहिये । धर्म समान मित्र ना जग में यह उर में लाना चहिये।
अब सम रिपु ना ताहि निज अंग न परसाना चाहिये। • परदुःख देख हँसो मत मन में क्षमा भाव ठगना चाहिये।
जब तक शिव ना तब तलक नित जिनगुण गाना चहिये २ साधर्मी लखि हर्ष करो उर मलिन भाव हाना चहिये । अंगहीनको देखकर भूल न खिजवाना चहिये। निज परकी पहिचान करो इसमें होना दाना चहिये। इसी ज्ञान बिन भ्रमे चिर अव निज पहिचाना चाहिये। दुःखी दरिद्री को दुःख देकर कभी न कल्पाना चाहिये। जब तक शिव ना तब तलकनित जिन गुण गाना चाहिये। गुण वृद्धों की विनय करो नित मान विटप दाना चहिये। पर विभूति को देख मन कभी न ललचाना चाहिये। मिथ्यावचन कहो मत छल से सुकृत का खाना चहिये।
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ज्ञानानन्द रत्नाकर। सुर शिव सुख बहुतोंको दीना । जिन कीनी पद सेव ॥३॥ । बार करत क्यों मेरी बारी । प्रभुजनकी सुधि लेव ॥ नाथूरामको धर्म पोत घर । भव सागरसे खेव ॥ इति गौरी
प्रभाती ॥३॥ ..चेत चिदानंद नाम भजले जिनवरका ॥ टेक ॥
· गाफिल मत रहो जीव, अब तक सोये सदीव ॥ - अब तो हग खोला मार्ग देखो निज घर का ॥१॥
पाया नर जन्म सार, अब जिय कुछ कर विचार ॥ बार बार पायो दुलंभा जन्म नर का ॥२॥ जिन साना मित्र और, लखियत है किसी और ॥
तात मात पुत्र मित्र सब कुटुम्ब जर का ॥३॥ । अब तज सब अन्य काम, जिनवरका भजो नाम।।। । यासे होय नाथूराम वासा शिवपुरका ॥४॥
प्रभाती॥२॥ जय जिनेश जय जिनेश जय जिनेश देवा ॥ टेक ॥ भवोदधि गहरो अपार, डूबत जन मांझ धार ॥ अवतो प्रभु कीजे पार सेवक का खेवा॥१॥ थारे चरणार बंद, अचंत सुर नर खगेंद्र ॥ . गावत स्तुति मुनेंद्र पावत शिव मेवा ॥२॥ थारे प्रभु गुण अनंत, गणधर नालहें अंत ॥ ध्यावत सब संत जान देवनके देवा ॥३॥ तज कर संसार वास, पावत शिवपुर निवास ।।
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७६ ज्ञानानन्द रत्नाकर। नाथूराम करे खास थारी जो सेवा.॥ ४॥
प्रभाती॥३॥ भज मन जिनराज कार्य सिद्धि होय तेरा ॥ टेक ॥ निशि दिन जपिये जिनेंद्र, अर्चत जिनको शतेंद्र ॥ वंदत चरणारवृंद मेटत भव फेरा ॥१॥ स्वार्थ विन कृपादृष्टि, राखत प्रभु परमइष्ट, जैसे भानु हरे सहज सृष्टिका अंधेरा ॥२॥ याही भव बन मझार, भ्रमोजीवानंत वार॥ प्रभु विन नालयो पार तज भव बसेरा ॥३॥ तजि अब जड़ जगति रीति, जिनवरसे करो प्रीति ॥ पाकर जिनमत पुनीत करो भव निवेरा ॥४॥ नाथूराम हो सुचेत, जिनवर से करो हेत ॥ जिनके पद कमल देत शिवपुर में डेरा ॥६॥
प्रभाती॥४॥ मानो भगवंत वैन यही ऐन करनी (टेक) हिंसा चोरी झूठ तजो, कुविसन मत भूल सजो॥ निशि दिन प्रभु नाम भजो सुरति ना बिसरनी॥१॥ जुआ आदि पाप खेल तजोनशा दुष्ट मेल॥ चलो नहीं पाप गैल सुख समाज हरनी॥२॥ दया सत्य वचन नीति, सज्जनसे करो प्रीति ॥ छोड़ो दुर्मति कुनीति सुक्ख की कतरनी॥३॥ मन देवच मानो हाल,यासे सुख हो त्रिकाल ॥
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ज्ञानानन्द रत्नाकर। बाड़े महिमा विशाला लहो सुयश धरनी॥ ४॥ जैन भक्त नाथूराम, कहते यही सार काम॥ यासे मिले परमधाम मिटे राह मरनी॥५॥
सामन॥१॥ सामनाये चेतान नहीं आये मोहे कुमति कुनारि ॥(टेक) पंच करण रस प्याय के, स्ववश किये करप्यार ॥१॥ धन वर्षत भीगी धरा, जलता हृदय हमार ॥२॥ सुमति सदामग जोवती, कब आवे भरतार ॥३॥ नाथूराम शोकित खड़ी, सुमति विरहके भार ॥४॥
सामन ॥२॥ स्वामी तोहमारे गिरि चढ़ि योगी भये, हमहू धरे तप सार (टेक) पशु बंधन लखि नेमि जी, दया धरी अधिकार॥ मुकुट पटकि कंकण तजे, वस्त्राभरण उतार ॥२॥ राजुल प्रभु तट जाय के, ली दिक्षा सुखकार ॥३॥ नाथूराम धन्य रजमती, हेय गिना संसार ॥ ४ ॥
होली ॥१॥ फाग रची जिन धाम स्वरंगी, भविजन मिल खेलत होरी।
(टेक) अष्ट द्रव्य ले पूजत प्रभुको दाहत बसु कमन कोरी ॥१॥ ज्ञान गुलाल लागिरहो अनुपम, गावत यश जिनवर कोरीर
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७८ ज्ञानानन्द रत्नाकर निरख निरख छवि वीतरागकी झुक नाचत पद ओरी॥३॥ नाथूराम जिनभक्त प्रभूसे मांगत फगुआ शिव गौरी ॥४॥
होली ॥२॥ राजुल नेमसे होली खेले हर्ष उर धार ॥ (टेक) परिग्रह पंक लगी अनादि से ताको हेय विचार । आतम अंग धोय सम्यक सर स्वच्छ किया अविकार ॥३॥ बारह व्रत भावना भूषण युत करके शील शृंगार॥ सुमति सखी ले संग सयानी, निज रंग छिड़कति सार ॥२॥ ज्ञान गुलाल लगावति अनुपम, गावति बहु गुणगारि॥ विविध विनय बाजिव बजावति, अंत भरे स्वर तार ॥३॥ निज पद फगुआ माँगति प्रभुसे लखि के चित्त उदार ॥ नाथूराम जिन भक्त भाव से नविरविविध प्रकार ॥ ४॥
उपदेशी पद ॥ १॥ चेतो प्राणी, शुभमति भैरे। मुनि जिन वाणी, शुभ मति भैरे
(टेक) मिथ्या तिमिर फटोप्रगटोरवि, सम्यक उर मुख दानी ॥शु० स्वपर विवेक, भयो उर अंतर निज परणति पहिचानी।।शु० सप्ततत्त्व जिन भाषित जाने, दृढ़ प्रतीति उरआनी शुभ नाथूराम जिन भक्त शिवेच्छा, प्रगटी निज रस सानी।।शु०
तथा ॥२॥ श्रीजिन वाणी, आनंद मेरे । शिव सुख दानी, आनंद मेरे।।
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ज्ञानानन्द रत्नाकर। ७९
(टेक) द्वादश सभा, भई सुन प्रफुलित, ज्यों चातक लखि पानी ? जाके सुनत,मिटामिथ्या तम । निजविभूतिपहिचानीआ० जास प्रसाद, तरे अरु तरि हैं। तरत अभी भवि प्राणी ॥आ० नाथूराम जिन, भक्त सुनोनित । श्रवण धार श्रद्धाणी ॥आ०
तथा ॥३॥ क्यों जिन वाणी, श्रवण न दैरे । उरन सुहानी, श्रवण नदेरे
· (टेक). जाविन तीन,काल त्रिभुवन में। रक्षक कोईन प्राणी। श्रवण नर्कत्रियंचन, के दुःख भूले । फिर तहां की रुचि ठानी ॥श्र० जा विन जीव,भ्रमे त्रिभुवन में। निज पुर राह नजानी ॥श्र० नाथूराम जिन भक्त सुनैना। शुभ शिक्षा अभिमानी॥श्र०
तथा ॥४॥ क्यों अभिमानी, दुति भैरे । लखत न हानी । दुर्मति भैरे
(टेक) परनारी दुर्गति की दाता। सोलाके गृह आनी।दुति०१ प्राण प्रतिष्ठा, धन वल नाशकाकर सुयश की हानी।।दुमति
काल कूटभखि, जीवन चाहे। जड़ माति मूर्खप्राणी।।दुमति । नाथूराम क्यों चेतत नाहीं ।सुन सतगुरुकीवाणी ।। दुर्मतिः
उपदेशी भजन ॥१॥ धरम भाविहो, त्रिभुवन में सुखकार ॥ (टेक) । दुर्गति नाशक, स्वपर प्रकाशक, भासक ज्ञेयाकाराधर्म३॥
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८० ज्ञानानन्द रत्नाकर। जिनवर कथित, क्षमादिक गुण युत, वसु विधिअरिहरतार जास प्रसाद, अधम शिवपहुँचे, घर २ वर अवतार । धर्म० दर्शन ज्ञान, चरण सम्यक युत, नाथूराम उरधार । धर्म०४
पद ॥१॥ लगोरी नेम प्रभु से प्रेम ॥ (टेक) ऐसा दया निधिरे, और नहीं है हो । जैसे जगजिपति नेम! जग असार लखिरे, गृह त्यागा है हो । करी पशुन पर क्षेमर विषय भोग येरे, दुःख दाता हैं हो। इनसे साता केम ॥३॥ नाथूराम अबरे, प्रभु तट जैहों हो । निज सुख पाऊं जेम॥
तथा ॥२॥ सखीरी नेनि शरण मैं तो जाऊं ॥ (टेक) पशु बंधन लखिरे, गृह त्यागा है हो। उन तट केश हुँचाऊं अब तपके बलरे,अशुभक्षिपैहों हो। त्रिय भवफेरन पाउंर तप सम जग मेंरे, और कहा है हो । तामें चित्त लगाऊ॥३ अब काहू विधिरे, ऐसा करि हों हो। नाथूराम शिव पाऊ४
तथा ॥३॥ प्रभूजी तुम देवन के देव ॥ (टेक) चौ प्रकार केरे, देव कहे हैं हो। सो करते पद सेव ॥१॥ देव पना है रे, सत्य तुम्ही में हो । नाहीं गुणों का छेव॥२॥ भवसागर कारे, पार नहीं है हो । धर्म पोत घर खेव ॥३॥ नाथूराम की रे, विनय यही है हो । प्रभुजनकी सुधि लेव४
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ज्ञानानन्द रत्नाकर।
तथा॥४॥ मुझेहै यह विस्मय अधिकाय ॥(टेक) जा माया सेरे, तू हित चाहे हो । सो उलटी दुःखदाय ॥१॥ जाके भ्रम मेरे, तूप भूलो हो। धर्म वचन न सुहाया॥२॥ या माया नेरे, बहुत ठगे हैं हो। नर्क दये पहुँचाय ॥३॥ नाथूराम क्यारे, चेत नहीं हैहो । दुर्लभ नर पर्याय ॥१॥
मैंतो दासी थारी नाथ मोकों क्यों विसारीरे॥ दीजे नाथ दीक्षा रक्षा कीजिये हमारीरे ॥(टेक) प्राणपियारे वचन तुम्हारे, श्रवण सुनत उपजत सुख भारीरे बन पशु छोड़े, बंधन तोड़े, जग लखि हेय चढ़े गिरिनारोरेर करुणा कीजे, यह यश लीजे, दीजे शिक्षा निज हितकारीरे३ रजमति प्यारी, दिक्षा धारी, नाथूराम सुरलोक सिधारीरे॥
__ तथा ॥२॥ पाये स्वामी मैं तो आज शिव सुखदानी रे ॥ दीजै नाथ शिक्षा इच्छा मनमें समानीरे ॥(टेक) जग हितकारी, वानि तुम्हारी, सहज विमल शीतल जिमि . पानीरे ॥ १॥भव दुःख भारी, आप लखारी, ताकी मैं प्रभु कहों क्या कहानीरे ॥२॥हे जगत्राता मैंटो असाता । तुम पद सेय वरों शिवरानीरे॥३॥ भव दुःख पाता, तुमही विधाता, नाथूराम श्रद्धा उर आनीरे ॥४॥
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ज्ञानानन्द रत्नाकर।
पद ॥१॥ जो तुम को शिव आशा । बनो पंच परमपद दासा ॥ (टेक) जिनके जपत नशत अघ सबही, फेर न आवतपासा ॥१॥ या पुद्गलका कौन भरोसा, होय क्षणक में नाशा ॥२॥ सम्यक रत्न त्रय उर धारो, दाता शिवपुर बासा ॥३॥ नाथूराम जिन भक्त जपो नित,जब लग घट में वासा॥
तथा ॥२॥ इस जड़ तनु की क्या आशा । जो क्षण भंगुर यम यासा॥
. : (टेक). रज वीर्य से उत्पति जाकी, भरो रुधिर मल मांसा ॥१॥ जल बुल बुल सम विनशत क्षण में, कौन भरोसा वासा२॥ या कारण नित पाप करत क्यों, दाता दुर्गति बासा ॥३॥ नाथूराम जो शिव सुख चाहे, हो जिनवर का दासा ॥४॥
पद ॥१॥ शिव प्रिया को त्रिया निज जान के भंवि कीजे हो यारी ॥
. . (ट्रेक) जन्मन मरन जरा गद क्षायक दायक निज सुख क्यारी ॥ हर्ता शोक वियोग की,कर्ता अविचल सुख अविकारी ॥
देह खेहसे नेह लगाके घर घर बना भिखारी॥ · निज सम्पति पति होत न भोंदू हाहा घिग मति थारी॥२॥ 'तीर्थपति यासे रति चाहत ऐसी अनूपम नारी॥.
शंकित कर्म कलंकित यासे संत जनों को प्यारी॥३॥
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ज्ञानानन्दरत्नाकर। ८३ . नाथूराम जिन भक्त जग्ति ताजि याहि वरें धी धारी॥ अविनाशी पद पावत सो ही तिन पद धोक हमारी ॥४॥
तथा॥ २॥ वसु कर्म परमरिपु नाशिये शुभ पाई हो वारी ॥(टेक) एकेंद्री विकलत्रय आदिक काय असेनी सारी ॥ ज्ञान विना बल रंचनचालो मर मर भयो दुखारी॥३॥ नारक गति खोटी मति तामें रौद्र ध्यान अधिकारी। पशु पक्षी कीटादि परस्पर घातक पापाचारी ॥२॥ काल पाय कोई सुलटें पशु हाय अनुव्रत धारी॥ तद्भव मुक्त होयना तहांसे यासे दुःखिया भारी ॥३॥ भोग भूमियां सुर संयम बिन हैं निकाम अवतारी ॥ आर्य नर पर्याय सयाने भवोदधि तारण हारी॥४॥ या तनु को सुरपति ललचत हैं ताहि पाय नर नारी ॥ · नाथूराम जिन भक्त करो तप तो परनो शिव प्यारी॥६॥
... .. तथा ॥३॥ जिन वचन रत्न उर धारिये शुभ सम्पति हो भारी। (टेक) काम धेनु सुर तरु चिंतामणि चित्रावलि विचारी॥ एक जन्म इंद्री सुखदाता यह भव २ हितकारी ॥३॥ दर्शन ज्ञान चरण सम्यक युत रत्नत्रय सुखकारी॥.. निज गुण युक्त सम्हारि धरो उर प्रेम सहित नर नारी॥२॥ जिन बच सार असार और वच भ्रम युत मायाचारी॥ तिनको त्याग लाग शिव पथ से सुनि जिन ध्वनि धीधारी
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८४ ज्ञानानन्द रत्नाकर। नर भव रत्न द्वीप में बसके अब क्यों रहो भिखारी॥ नाथूराम जिन भक्त शक्ति सम होउ नेम व्रत धारी ॥४॥
तथा॥४॥ तनु क्षणभंगुर मल धाम है मति राचो धी धारी ॥(टेक) सप्तधातु उपधातु व्याधि से पूरण पिंड पिटारी ॥ नव मलं छिद्र निरंतर श्रवते देखत घिन हो भारी॥१॥ तात शुक्र जननी रजसे यह प्रगट भया अप क्यारी ॥ अप गुण कूप भूप कुविसन का दुर्मति याको प्यारी ॥२॥ अस्थि मांस का पिंड त्वचासे आच्छादित भ्रमकारी॥ शृंगारादि वसन भूषण लखि मोहें शठ नर नारी ॥३॥ नाथूराम जिन भक्त शक्ति सम याहि पाय सुविचारी॥ जप तप नेम करो निशि बासर मानो विनय हमारी॥४॥
तथा॥५॥ मैं भव वन में चिरकाल से दुःख पाया हो भारी ॥ (टेक) नित्य निगोद बसा अनादि से थावर काया धारी॥ एक श्वास में जन्मन मरना किया अठारह बारी॥१॥ क्रम क्रम तनु विकल त्रय धरके भ्रमो पशू गति सारी॥ पंच प्रकार सहा नारक दुःख वश बहु नर्क मझारी॥२॥ सुर गति में सम्यक्त विना नहीं तजी लेश्या कारी॥ मनुष योनि मलेच्छ शुद्ध हो भयो अभक्ष्याहारी ॥३॥ शुभ संयोग लहा श्रावक कुल अव यह विनय हमारी॥ नाथूराम को दीजै प्रभुजी निज सेवा सुखकारी॥४॥
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ज्ञानानन्दरत्नाकर।
तथा ॥६॥ जिन विषय विषम विष सम तजे धन्य वेही थी धारी ॥ टिक) करत अजान पान विष ता के प्राण हरत एक बारी॥ ये खल प्रवल गरल बल पल २ हनत निगोद सुडारी ॥३॥ इन वश जीव सदवि कीवहो आतम शक्ति विसारी॥ पर परणति रति मान कुमति लहि भयो कुगति अधिकारी एक अक्षवश गज झख अलि मृग होत पतंग दुःखारी॥ पंच करन मन धर सुर नर ये क्यों न भरें दुःख भारी॥३॥ ज्यों दव दहति लहति अति ईंधन गहति न तोषक दारी॥ त्यों इन चाह दाह पड़ प्राणी विकल अखिल संसारी ॥l! जो इन लीन मलीन क्षीण मति दीन मुहीनाचारी ॥ देह खेह का गेह येह तिन लागति नेह पिटारी ॥६॥ जिन इन भोग संयोग रोग का न्योग लखा सविकारी॥ नाथूराम शिवभाम धाम सो बसे राम रमतारी॥६॥
पद ॥१॥ स्वामी जी वतादो शिवपुर की डगरिया मुझे तो बतादो शिवपुरकी डगरिया ॥ (टेक) भ्रमत २ चिरकाल व्यतीतो शिवपुर का पथ दृष्टि न परिया॥१॥ जाकारण बहु जीव सताये, भक्ति कुदेवन की बहु करिया ॥२॥ अब कुछ काल लब्धि शुभ आई, श्रवण धरे जिन वच इस बरिया ॥३॥ नाथूराम जिनभक्त मिलेगी, निश्चय कर शि- . वप्रिया की नगरिया ॥४॥
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ज्ञानानन्द रत्नाकर।
तथा ॥२॥ मुझे प्यारी लागे शिव प्रिया की नगरिया ॥ (टेक) जन्म नमरण जरा गद वर्जित भूमि तहांकीध्रुव सुख करिया। जाकारण गृह तजि बसि वन में कष्ट सहत अति मुनि तप
धरिया ॥२॥ जाकी आश करत इंद्राद्रिक कब आवे शिव गमन की परिया नाथूराम जिन बचन धरोउर सहन मिले शिवपुरकीडगरिया
कहरवा ॥१॥ आयाजी आयाजी आयाजी, मैं शरण तुम्हारे आयाजी(टेक) लख चौरासी योनि में जी पाया वहुपाया बहु दुःख ॥१॥ चारों गति दुःखधाम हैं जी कहीं नाहीं कहीं नाहीं सुखा॥२॥ दीनानाथ दीनको तारो दया कर दयाकर रुख ॥३॥ नाथूराम गया दुःख सवही देखा थारा देखाथारा मुख॥४॥
तथा ॥२॥ तारो जी तारो जी तारो जी, मुझे बहियां पकड़ प्रभु तारो जी ॥ (ट्रेक) यह भवसिंधु अतट अति गहराडूवें प्राणी डू। प्राणी गुप ॥ १॥ तारण तरण जान दृढ़ तुम ही तारो राख तारो राख उप ॥२॥ मेरा दुःख जानत तुम सबही रहा नाहीं रहानाहीं छुप ॥३॥ नाथूराम भरोसेथारे बैठे स्वामी बैठे स्वामी चुप ॥४॥
पद ॥१॥ श्री आदीश्वर जिनराज आज पति राखो जय २ जय स्वामी
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ज्ञानानन्द रत्नाकर। १९ अभक्ष्य भक्षण तजो चित शील में निज साना चहिये । नाथूराम निज शक्ति प्रगट कर बनना शिव राना चहिये। जब तक शिव ना तब तलक नित जिन गुण गाना चहिये।।
चंद्रगुप्तके १६ स्वोंकी लावनी ॥ १५॥ सोलह स्वप्न लखे पिछली निशि चंद्रगुप्त नृप अचरजकार। भद्रवाहुने कहे तिनके फल सो वर्तते अवार॥
(टेक) सुर दुम शाखा भंग लखा सो क्षत्री मुनि व्रत नहीं धरें। अस्त भानु से अंग द्वादश मुनि ना अभ्यास करें। सुर विमान लौटत देखे चारण सुर खग ह्यांना विचरें। बारह फन के सर्प से बारह वर्षे अकाल परें। सछिद्र शशि से जिन मत में बहु भेद होंय ना फेर लगार।। भद्रबाहु ने कहे तिनके फल सो वर्तते अवार ॥१॥ करि कारे युग लड़त लखे सो वांछित ना वर्षे जलघर ॥ अगिया चमकत लखा जिन धर्म महात्म रहेलधुतर ॥ सूखा सर दक्षिण दिशि तामें आया किंचित नीर नजर ॥ तीर्थ क्षेत्र से उठे षं दक्षिण में रहती कुछ घर ॥ गज पर कपि आरूढ़ लखाकुल नीच नृपोकाहो अधिकार। भद्रबाहुने कहे तिनके फल सो वर्तते अवार ॥२॥ .. हेमथाल में स्वान खीर खाता सो श्री ग्रह नीच रहै। नृपसुत उष्ट्रारूढ़ सो मिथ्या मार्ग भूपवहै । विगशित पद्म लखे कूड़े में जैन धर्म कुल वैश्य गहै।
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२० ज्ञानानन्द रत्नाकर । सागर सीमा तजी सो भूपति पंथ अनीतिलहै ॥ रथ में बच्छा जुते सो बालक पन में धारें वृषका भार॥ भद्रबाहुने कहे तिनके फल सो वर्तते अवार ॥३॥ रत्न राशि रज से मैली सो यती परस्पर हो झगड़ा। भूत नाचते लखे सो कु देव पूजन होय बड़ा ।। इतनी सुन नृप चंद्रगुप्ति ने सुत सिंहासन दिया अड़ा। आप दिगम्बर भया गुरु संग लगा तप करन कड़ा । नाथूराम जिन भक्त कहे सोल स्वप्ने फल श्रुतानुसार ॥ भद्रबाहु ने कहे तिनके फल सो वर्तते अवार॥४॥
राक्षस वंशीन की उत्पत्ति की लावनी ॥ १६॥ अजितनाथ के समय मेघवाहन राक्षस लंका पाई॥ तिस का वर्णन सुनो जो श्रवणों को आनंददाई ॥
(टेक) विजयाई दाक्षिण श्रेणी में चक्र बालपुर नन बसे । नृप पूरण घन मेघ वाहन ताके शुभ पुत्र लसे॥ तिलक नगर का नृपति सुलोचन सहस्रनयन सुत तातनसे। कन्या उत्पलमती दोनों जन्मे सुंदर उन से॥
चौपाई॥ उत्पल मती पूर्ण घन जायनिज सुत को जांची मनलाया। वचन निमित्ती के सुनराय । दई सगर को सो हरपाय ॥
दोहा। तब पूरण धन सेनले , हना सुलोचन राय।
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ज्ञानानन्द रत्नाकर। २० सहस्त्र नयन ले बहिन को, छिपा विपिनमें धाय ॥ पूरणधन ने कन्या की खातिर नगरी सब ढुंदवाई॥ तिसका वर्णन सुनो जो श्रवणों को आनंददाई ॥१॥ सगर चक्रपति को इक दिन माया मय हय ने हरा सही॥ धरा विपिन में वहीं लखि उत्पल मतीभात से कही। चक्री के तट सहस्त्र नयन ने जाय बहिन परनाय वही॥ अति आदर से युगल श्रेणीकी पाई आप मही॥
. . चौपाई। सहस्र नयन चक्री बल पाके । पूरण धन मारा रण धाके। भगा मेघ वाहन घबराके । समव शरण में पहुँचा जाके ॥
- दोहा॥ अजित नाथको बंदि के बैठा समता ठान। सहस्त्र नयन के भट तहां, देख गये निज थान ॥ तिन के मुख सुन सहस्त्र नयन भी गया जहां जित जिनराई तिसका वर्णन सुनो जो श्रवणों को आनंददाई ॥२॥ समोशरण में जाय भवान्तर पूछि सभी निवैर ठये ॥ यह सुन राक्षस इंद्र प्रमुदित मन भीम सुभीम भये॥ कहा मेघवाहन से धन्य तू अब तेरे सब दुःख गये ॥ श्री जिन वर के चरण तल जो तेरे वसु अंग नये ॥
चौपाई। हम प्रसन्न तो पर खगराय । सुनो वचन मेरे मन लाय ।। राक्षस द्वीप बसो तुम जाया वह भू तुमको अति सुखदाया
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ज्ञानानन्द रत्नाकर।
दोहा। : लवणोदधिके मध्य है , राक्षस द्वीप प्रधान ॥ . लंबा चौड़ा सातसौ, योजन तास प्रमाण ॥ । सब द्वीपोंमें द्वीप शिरोमणि जासु कीर्ति जगमें छाई ।।
तिसका वर्णन सुनो जो श्रवणों को आनंददाई॥३॥
ताके मध्य त्रिकूटाचल योजन पचास ताका विस्तार॥ - ऊंचा योजन कहा नव तास तले नगरी सुखकार ॥
लंका योजन तीस तहां जिन भवन बने चौरासीसार।। सपरिवार से वहां निवसो तुम अरिगण का भयटार॥
चौपाई। अरु पाताल लंक शुभ थान । ठौरशरण का है सु प्रधान ॥ छन्योजन ऑड़ा परवान । है सुंदर स्थान महान ॥
दोहा। इक शत साढ़े तीसइक १३१ ॥ डेढ़ कला विस्तार ॥ यह कहि निज विद्यादई , अरु रत्नोंका हार ॥ बसे मेघवाहन तहां जाके कुटुम सहित तहां हर्षाई ॥ . तिसका वर्णन सुनो जो श्रवणों को आनंददाई॥४॥ ता राक्षस कुल में असंख्य नृप भये सोनिजकरणीअनुसार कोई शिवपुर गये किनहीं सुरके सुख लिये अपार
कोई पाप कर गये अधोगति भ्रमतभये चउ गति दुःखकार . मुनि सुव्रत के समय में विद्युतकेश भये नृप सार ।
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ज्ञानानन्द रत्नाकर। २३
चौपाई। तिनके पुत्र सुकेश सुजान । इंद्रानी तिसके त्रिय जान ॥ तीन पुत्र ताके गुणवान । भये सुधीर महावलवान ॥
दोहा। माली और सुमाली अरु, माल्यवान तिन नाम । सुमालीके रत्नश्रवा , पुत्र भया गुणधाम ॥ भई केकसी रानी ताके जासु कीत जगमें गाई ॥ तिसका वर्णन सुनो जो श्रवणोंको आनंददाई ॥५॥ रत्नश्रवा त्रिय केकसी के सुत तीन महा बलवान भये ॥ पहिला रावण दुतिय सुत कुंभकरण गुणधाम ठये ॥ त्रितिय विभीषण कुलके भूषण जिनने शुभगुण सर्व लये॥ तीनों योद्धा अनूपम तिनको भूप अनेक नये॥
चौपाई।
शूर्पनखा तिन बहिन प्रधान । भई अनूपम रूप महान ॥ खर दूषण परनी बुधिवान । वसे लंक पाताल सुजान ।।
दोहा। राक्षस द्वीप विषे बसे , विद्याधर गुणधाम । • यह वर्णन संक्षेप से , कहा सु नाथूराम ॥
पल भक्षक राक्षस ये नाहीं नर पवित्र जानो भाई॥ तिसका वर्णन सुनो जो श्रवणों को आनंददाई ॥६॥
वानरवंशीनकी उत्सति की लावनी ॥ १७ ॥ वानर वैशिन की जैसे उत्पत्ति भई सो सुनो श्रवन ॥
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— २४ ज्ञानानन्द रत्नाकर। जिन शासन कालहों आधार न कल्पित कहों वचन ॥
(टेक) विनयाई दक्षिण श्रेणी मेघपुर तहां खगपति शुभ नाम ॥ अतींद्रराजा पुत्र श्रीकंठ मनोहरा कन्या धाम ।। तही रत्नपुर नृप पुष्पोत्तर पद्मोत्तर ता सुत अभिराम ॥ कन्याताके एक पद्माभा मनु सुरपति की भाम॥
. चौपाई॥ मनोहरा पुष्पोत्तर राय । निज सुत को जांची उमगाय॥ श्रीकंठ कन्या के भाय । दई न ताको मने कराय॥ .
दोहा। । धवलकीर्ति लंका धनी, राक्षस वंशी भूप॥ . व्याही ताहि मनोहरा, लखि के अधिक अनूप ॥ पुष्पोत्तर खग श्रवण सुनत यह बहुत उदासी मानी मन ॥ जिन शासन का लहों आधारन कल्पित कहों वचन ॥१॥ एक दिना श्रीकंठ वंदना सुमेरुकी कर आते घर॥ पद्माभाका राग सुन मोहित हो तिहि लीनी हर॥ सुनत कुटुम जन तभी पुकारे पुष्पोत्तरको दई खबर ॥ क्रोधित होके तभी खग चढ़ां सेन ले ता ऊपर ॥
. चौपाई। श्रीकंठ लंकाको धाया। धवलकीति लखि अति हर्षाया। . सेन लिये तौलों खग आया। धवलकीर्ति सुन दूत पठाया।
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ज्ञानानन्दरत्नाकर। २५
.. दोहा। पुष्पोत्तर को तासने समझाया बहुभाय । अरु पद्माभाकी सखी, गई कही तहां जाय ॥ तात दोष ना श्रीकंठका वरा मैं ही याको आपन ॥ जिन शासनका लहों आधार न कल्पित कहो वचन ॥२॥ लौटगया खग कीर्तिवाल तव श्रीकंठको प्रीति दिखाय ॥ निवास करने वानर द्वीप तिन्हें दीना शुभराय ।। श्रीकंठ तहां गये बताया नम्र किहकपुर अति सुखदाय॥ वानर देखे तहां बहु केलि करत नाना अधिकाय ॥
__चौपाई। तिनने कपि पाले रुचि ठान । तिनसे क्रीड़ा करत महान।। रचे चित्र तिनके गृह म्यान । रंगर के लखि सुखदान ॥
. दोहा। ता पाछे बहु नृप भये, तिनभी कपिके चित्र॥ मंगलीक कारण विपे, थापे जान पवित्र ॥ वास पूज्यके समय अमर प्रभु भये भूपप्तो सुनो कथन । जिन शासनका लहों आधार न कल्पित कहों वचन ॥३॥ तिनकी रानी डरी भयंकर देख चित्र कपिके तब राय ॥ ध्वजा मुकुटमें कराये चित्र ग्रेहके दये मिटाय॥ तबसे ये कपिकेतु कहाये कंपि वंशी. उत्पतियों आय ॥ वानरं नाहीं नृपति नर विद्याधर हैं जानो भाय॥
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२६ ज्ञानानन्द रत्नाकर।
चौपाई। ता कुलमें बहु नृप गुणधाम । भये कहां तक लीजै नाम ॥ फेर महोदधि नृप अभिराम । भये अनूपम ताही ठाम ॥
दोहा। तिनके सुत प्रतिचंद्रके, दोयपुत्र अतिधीर ॥ भये प्रथम किहकंद अरु, छोटा अंधक वरि ॥ तिन्हे राज प्रतिचंद्र देय व्रत लेय गये तप करने बन॥ जिन शासनका लहों आधार न कल्पित कहों वचन ॥ एक दिना विजयाई पर आदित्यपुरके विद्याधरने ॥ नृपति बुलाये स्वयंवर मंडप में कन्या वरने॥ नृप किहकंद श्री मालाने तहां प्रेम धरके परने॥ रथनूपुरका ईश लखि विजयसिंह लागा जरने॥
चौपाई। भया परस्पर युद्ध महान । अंधकने करगहि धनु बान ॥ विजयसिंह मारा शरतान । भगी सेन ताकी तजि थान ॥
दोहा। असनवेग ताका पिता, सुनत चढ़ा ले सेन ॥ तब वानर वंशी भगे । सन्मुख तहां रहेन ॥ असनवेग ने घेर किहकपुर कपिवंशिनसे कीना रन॥ जिन शासन का लहों आधार न कल्पित कहों वचन॥६॥ असनवेग का सुत विद्युतवाहन किहकंद लड़े ले बाण ॥ असनवेगने तहां मारा अंधक दारुण रण ठान॥
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ज्ञानानन्द रत्नाकर। २७ विद्युतवाहनने किहकंद किया घायल मारी सिलतान ।। मूछों खाके भूमि पर गिरा मगर ना निकले प्राण ॥
चौपाई। तव लंकेश सुकेश उठाय । रखा किहकपुर में सो आय ॥ फिर पाताल लंकमें जाय । छिये सर्व ही प्राण बचाय ।
दोहा। असनवेग तब सेन ले, लौट गया निजथान ॥ फिर उदास हो भोगसे, धारातप बुधिवान ॥ सहस्रार पुत्रको राज तिन दिया किया निज वास विपन ॥ जिन शासन का लहों आधार न कल्पित कहों वचन॥६॥ सहस्रार ने लंकामें निर्यात सुभट राखा ताने । सहस्रारके भया सुत इंद्र नाम राखा वाने ॥ . सूर्यरज ऋक्षरज भये किहकंदके दो सुत गुण स्याने ॥ नग्र बसाके बसे किहकंदपुर के तब दरम्याने ॥
चौपाई। सूर्य रजके दो सुत भये । नाम वालि सुग्रीव सुलये ॥ ऋक्ष रज के भी दोमुत ठये । नल अरु नील नामतिनदये।
दोहा। निवसे वानर द्वीपमें, यासे कपि कुल नाम ॥ ये वन पशु वानर नहीं, विद्याधर गुणधाम ॥ विद्याके बल चढ़ि विमानमें करें सर्वां गगण गमन ॥ . जिन शासनका लहों आधार न कल्पित कहों वचन ॥७॥
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ज्ञानानन्द रत्नाकर। लंकापति राक्षस सुकेत के तीन पुत्र उपजे गुणखान ॥ माली सुमाली और लघु माल्यवान रूपके निधान ।। मालीने निर्घात सुभट को मार लिया लंका निज थान॥ फिर मालीको इंद्र विद्याधरने मारा रण म्यान ॥
चौपाई।
सुमालीके सुत रत्नश्रवाके । भये तीन सुत अतिवलयाँके । रावण आदि तिन्होंने जाके। बांधा इंद्र समरमें धाके ॥
दोहा। रथनूपुर पति इंद्र यह , विद्याधर नरनाथ ॥ नहीं इंद्र सुरलोकका , हारा रावण साथ ॥ नाथूराम वानर वंशिनकी कही कथा यह मनभावन ॥ जिन शासनका लहों आंधार न कल्पित कहों वचन ॥८॥
चौवीस तीर्थकरकी लावनी ॥ १८॥ कीजै नाथ सनाथ जान निज युग चरणनका दास प्रभू ॥ दीजी जै मुक्ति रसाल काटि विधि जाल रखो निजपासप्रभू।
(टेक) प्रथम नमों आदीश्वरको हुए आदि तीर्थ कार प्रभू ।। आदि जिनेश्वर आदीश्वरजी शिव रमनी भार प्रभू ॥ अजितनाथ जीते अजीत वसु दुष्ट कर्म किये क्षार प्रभू ॥ तारण तरण जहाज नाथ किये भक्त भवोदधि पारप्रभू ॥ सम्भवनाथ गाथ गुण प्रगटे सम्भ्रम मेंटनहार प्रभू ॥ ज्ञानभानु अज्ञान तिमर हर तीन जगतिमें सारप्रभू ॥
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ज्ञानानन्द रत्नाकर। . २९
चौपाई। अभिनंदन अभिमान विदारो। मार्दव गुण हिरदे विस्तारो। ज्ञानचक्र प्रभु जब कर धारो। मोह मल्लरिपु क्षणमें मारो।
दोहा। सुमति नाथ प्रभु सुमतिपति , करो कुमति ममनाश ॥ सुमति देहु निज दासको, अनुभव भानु प्रकाश ।। पद्मप्रभुके पद्मचरण हिरदेमें करो मम वास प्रभू ॥ दीजे मुक्ति रसाल काटि विधि जाल रखोनिज पास प्रभू॥ नाथ सुपारस निज पारसप्रभु जन्म बनारस लीनाजी॥ सम्मेदागिरिवर पै ध्यानधर वसु अरिको क्षय कीनाजी॥ चंद्र प्रभुके चरण कमलकी क्रांति देख शशि हीनानी॥ महासेनके लाल नवाऊं भाल परम सुख दीनानी। पुष्पदंत महाराज रखो मम लाज समर करो क्षीणाजी॥ शील शिरोमणि देव करों तुम सेव सफल मम जीनाजी ॥
चौपाई। शीतल नाथ शील सुखधामासिद्धि करो मन वांछितकाम।। श्रेयांन्स श्रीपति गुण ग्राम । जपों नाम थारो वसुजाम॥
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दोहा।
वास पूज्यके पूज्यपद , वसो हृदय मम आन।। विमल नाथ कलिमल हरो, करो विमल कल्याण ॥ अनंत नाथ दाजै अनंत सुख यह पुजवो मम आश प्रभू ॥ दीजै मुक्ति रसाल काटि विधि जाल रखो निज पास प्रभू॥
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ज्ञानानन्द रत्नाकर। धर्मनाथ प्रभु धर्म धुरंधर धर्म तीर्थ करतारं प्रभू ॥.. प्रगटे धर्म जहाज नाथ किये भक्त भवोदधिपार प्रभू ॥ शांतिनाथ प्रभु शांति गुणोनिधि कामक्रोधकिये क्षार प्रभू दयासिंधु त्रिभुवनके नायक दुःख दरिद्र हरतार प्रभू ॥ कुंथु नाथ कुंथू गज सम जीवन के रक्षण हार प्रभू ॥ अधमोद्धारक भवोदधि तारक देनहार सुखसार प्रभू॥
चौपाई। अरहनाथ अरि कोने चरि। जिनके वचन सुधारस मूरि॥ मल्ल नाथ मल्लनमें भूरि । काम मल्ल हनि कीना दूरि॥
दोहा। सुनि सुत्रत महाराज जी , प्रभु अनाथ के नाथ ॥ कार्य सिद्धि मन कीजिये , नमों जोड़ युग हाथ ॥ . निमि प्रभु दीन दयाल मिटादो भव अरण्यका राश प्रभू । दीजै मुक्ति रसाल काटि विधिनाल रखो निज पास प्रभू ३. समुद्र विजय सुत नेमि गुणोयुत राजमती के कंत प्रभू ॥ यदुकुल तिलक शरण अगरणको देनहार सुख संत प्रभू । पारसनाथ बाल ब्रह्मचारी तप धारी सो महंत प्रभू॥ नाग नागनी जरत उवारे दे निज मंत्र तुरंत प्रभू॥ महावीर महाधीर महारिपुकाँका किया अंत प्रभू ॥ पावापुर से मुक्ति पधारे हो अंतम अरहंत प्रभू ॥
चौपाई। तीन काल के जिन चौवीस । त्रिविधि शुद्धध्याऊंजगदीश।
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ज्ञानानन्दरत्नाकर। ३१ कार्य सिद्धि कीजै मम ईश । युगल चरण में नाऊं शीश ॥ .
दोहा। हाथ जोड़ विनती करों, नाथ गरीब निवाज़ ॥ लाज रहै जो दास की, कोज वही इलाज ॥ नाथूराम की अर्ज यही करदो वसु अरिका नाश प्रभू ॥ दीजै मुक्तिरसाल काटि विधिजाल रखोनिज पास प्रभू॥॥
जिन भजन का उपदेश म की दुअंग लावनी ॥ १९ ॥ मन वच कायजपो निशि वासर चौवीसोजिन देव का नाम।। मंगल करन हरन अब आरति पाता विधि दाता शिवधाम।।
(टेक) मोह महाभट जगतमें नट खट ताके पड़ावश आतम राम।। मग्न विषय सुख में निशि वासर नहीं खबर निज आठो जाम मूढ़ कुमति से प्रीति लगाके मित्र बनाये क्रोध रु काम ॥ महत्व अपना भूल गया शठ जानारूप निज हाहरु चाम।। महद्भक्ति करेना जड़मति जासे मिले अनुपम शिव भाम॥ मंगलकरन हरन अघ आरति घाताविधिदाता शिवधाम ॥ : मदन के वश रस विषयको चाहे दोहे सुगुण निजं मूढ़ तमाम माने ना शिक्षा गुरुंजगकी दुर्गात को करता व्यायाम ॥ मद्यमांसको सप्रेम सेवे जैसे दरिद्री शीत में घाम ।। माया लीन ठगे दीनों को फिर कुविसन में खोवे दाम ॥ मतिमानों की करे न संगति जाते वसे अविनाशी ठाम ॥ मंगल करन हरन अव आरति घाता विधि दाता शिव धामर
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ज्ञानानन्द रत्नाकर मात तात सुत भात मित्र त्रिय दासी दास अर्द्धगी भाम॥ माने मोह वश अपने इनको बो बमूल शठ चाहे आम ॥ मेरी मेरी करता निशि दिन नहीं लहे क्षण भर विश्राम ॥ मोत फिरे शिर पर निशि वासर नहीं करै क्षण एकविराम। महा मूढ प्रभु नाम न जपता जिस्से लहे अविचल आराम॥ मंगलकरन हरन अप आरति घाताविधिदाताशिवधाम॥३॥ मिथ्या मार्ग चले आप शठ कर्मों को देता इलजाम ॥ मूल तत्त्व श्रद्धाण न करता इस्से अधोगति करे मुकाम ॥ मानो सुधी यह सीख सुगुरु की स्वपर भेद में रहो न खाम मिले न फिर पर्याय मनुज की करो शुद्ध यासे परणाम ॥ भद आठो को टार धार उर नाम प्रभूका नाथूराम ॥ मंगलकरनहरन अप आरति पाता विधि दाताशिवधाम॥
जिन प्रतिमा की स्तुति लावनी ॥ २०॥ ध्यानारूढ़ वीतरागी छवि परम दिगम्बर श्री जिनेश ॥ महापवित्र मूर्ति श्रीजिनकी त्रिभुवनपति पूजते हमेश।
(टेक) जैसे राग कामी को बढ़ावे हाव भाव युत त्रिय का चित्र ॥ भय विन उपजे देखत मूर्ति सिंह मलेच्छ महा अपवित्र ॥ तैसे भाव वैराग बढ़ावे परम दिगम्बर मूर्ति विचित्र ॥ क्षमाशील संतोष होंय दृढ़ देखत श्रीजिन मूर्ति पवित्र ॥ कृत्या कृत्यम मूर्ति पूज्य सब नहीं परिग्रह जिनके लेश ॥ महापवित्र मूर्ति श्रीजिनकी त्रिभुवनपति पूजते हमेश ॥१॥
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ज्ञानानन्द रत्नाकर। ३३ चतुरन काय देव नर खगपति जिन मूर्ति को करें प्रणाम। मन वच काय भाव श्रद्धायुत वंदत प्रभु छवि आ जिनधाम ऐसी मूर्ति पूज्य श्री जिनकी महापुरुप बदें वसु जाम ॥ तिनकी जो शठ निंदा करते अपराधी तिनका मुँह श्याम! जिनवर तुल्य मूर्ति श्री जिनकी यही पुराणों में आदेश । महापवित्र मूर्ति श्री जिनकी त्रिभुवनपति पूजते हमेश२॥ अधमकाल की यह विचित्र गति बढ़े दुष्ट पापी स्थूल ॥ मिथ्या ग्रंथ बनाय पाप मय धर्म ग्रंथोंका काटत मूल ॥ जैनी हो जिन वचन न मानें है मुखार उन के में धूल ॥ जिन मूर्ति की निंदा करतें आम्र काज बोवते बबूल ॥ महा नरक की सहें वेदना पर भव में ऐसे मूडेश। महापवित्र मूर्ति श्री जिनकी त्रिभुवनपति पूजते हमेशा॥३॥ हैं प्रत्यक्ष मूर्ति जड़ सवही किंतु पूज्य जिन का आकार।। राग द्वैष परिग्रह ना जिनके क्षमा शील लक्षणयुत सार॥ वस्त्र शस्त्र आभरण विलेपन कौतूहल नाना श्रृंगार ॥ . काम क्रोध लक्षण युत मूर्ति सो अवश्य पूजना असार ।। नाथूराम कहें जड़तो शास्त्र भी किंतु पूज्य जिन वचन विशेष महापवित्र मूर्ति श्री जिनकी त्रिभुवन पति पूजते हमेश॥४॥
कलियुगकी लावनी ॥ २१॥ कलियुग का करों व्यान वक्त जव से कलियुग का आयाहै।। हुआदुखी संसार पाप से पाप जगत में छाया है।
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ज्ञानानन्द रत्नाकर | (टेक)
धरा योग तज भोग भई छवि परम हंस मूर्ति स्वयमेव ॥ वीतराग जिनदेव दिगम्बर तिन्हें कहें शठ नंगा देव || आप लिंग संकर का उमा की पूजें भग नर त्रिय कर सेव ॥ तिन्हें न नंगा कहें महानिर्लज्ज दुष्टों की देखो देव || शिव भक्तों के उरमें उमा की भग शिव लिंग समाया है ॥ हुआ दुखी संसार पाप से पाप जगत में छाया है ॥ १ ॥ वीतराग हैं नग्न मगर मस्तक पद तिनके पूजें परम || महादेव का लिंग पूजें जो नाम लिये आती है शरम ॥ बड़े सोच की बात दुष्ट शठ आपतो ये वद करें करम | वीतराग की निंदा करते जो जग में उत्कृष्ट धरम ॥ भई प्रगट मति भ्रष्ट जिन ने स्त्रिन से लिंग पुजाया है || हुआ दुखी संसार पाप से पाप जगत में छाया है ॥ २॥ देख तिलोत्तमा रूप वदन ब्रह्माने काम वश कीन्हें पांच ॥ धर नितम्ब शिर हाथ शंभु ने किया गवरके आगे नांच ॥ धरें नारिका रूप कृष्णजी फिर विरज में खोलें कांच | तज धोती लिया पहिन धांगरा लिखा भागवत में लो बांच॥ महाकामके धाम तीनों ऐसा पुराणों में गाया है ॥ हुआ दुखी संसार पाप से पाप जगत में छाया है ॥ ३ ॥ लोभ पाप का बाप जिस ने ब्राह्मण के घर कीना है बास || मिथ्या ग्रंथ वनाय धर्मशास्त्रों का कर दीना है नाश || भक्ति ज्ञान वैराग की तज कामी जो मति होना हैं खास ॥
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ज्ञानानन्द रत्नाकर। ३५ कहें भक्ति भोगोंमें विपय पोपण को नाम लीना है तास ॥ ईश्वरका ले नाम भोग कर पुष्ट करें निज काया है। हुआ दुखी संसार पापसे पाप जगत में छाया है ॥४॥ ब्रह्मा विष्णु महेश तीनों ये काम क्रोध मायाके धाम ॥ वीतराग तीनोंसे वर्जित शुद्ध सार्थिक जिनका नाम ॥ पक्षपात तजि कहो धर्मसे इनमें कौन पूजनके काम ।। वीतराग या हरि हर ब्रह्मा कहें सभामें नाथूराम ॥ दुष्टोंका अभिमान हरन को यह शुभ.छंद बनाया है। हुआ दुःखी संसार पापसे पाप जगत में छाया है ॥५॥
शाखी। धन्य २ जिनवर देव जिनने निज धर्म प्रकाशा॥ जिसकी सुर नर पशु भवि के सुनने की आशा॥ घरे पंच कल्याण भेद सब सुनो खुलाशा। गर्भ जन्म तप ज्ञान किया निर्वाण में वासा ।।
दौड़। भव्य ये सार पंच कल्याण । धरें जो चौबीसौ भगवान ॥ गर्भ जन्म तप ज्ञान रु निर्वाणासुरासुर पूजें तज अभिमान! जिनके सुनने से होय वर बुद्धानाथूराम पावो शिव मगशुद्ध
ऋपानाथके पंचकल्याणकी लावनी ॥ २२॥ नाभिनदन तजि सदन चले वन शिव रमनीको वरन ॥ आदि प्रभु प्रगटे तारण तरण जी ॥
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ज्ञानानन्द रत्नाकर।
(टेक) प्रथम गर्भसे मास द्विगुण त्रय भई रत्नोंकी वृष्टि ॥ ... पंचदश मास अवधिकी सृष्टिजी।।हूंठ कोड़ि वयवार रन ॥ शुभ वर्षत आये दृष्टि ॥ करें संशय सुन मूढ़ निकृएजी॥
दोहा। इंद्र हुक्मसे धनदने, रची अवधि जिमि स्वर्ग ॥ . . . नव द्वादश योजन तनी, तामधि उत्तम दुर्ग॥ . . . कूप वापी तड़ाग बहुवरणाआदिप्रभुप्रगटेतारणतरणजी ३॥ त्रिविध ज्ञानसंयुक्त जन्मलिया मरुदेवीक लाल । मुकुट हरिका कंपातकालजी॥ साढ़ेबारह कोटि जातिके तूर बजे सब हाल ॥ . सप्त डग चल नाया हरि भालजी॥
इंद्र चले सुर साथले, करन जन्म कल्याण ॥ करत शब्द सुर गगनमें, जय जय जय भगवान ॥ नाथ तुम शोभित की नी धरना आदिपशु प्रगटेतारण.२॥ तीन प्रदक्षिणा दई नग्रकी इंद्र सुरोंके साथ । फेर तहांगये जहां जिन नाथजी । इंद्रानी हरि हुक्म लिआई जिनवरको निजहाथ । देख दर्शन नाया हरि माथजी ।
दोहा। निरखि रूप भगवानका, तृप्त हुवा ना इंद्र ॥ तब सुरेंद्र हग सहन कर, देखे आदि जिनेंद्र ॥
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ज्ञानानन्दरत्नाकर। ३७ नवाया मस्तक प्रभुके चरणाआदि प्रभु प्रगटे तारण ३॥ प्रथम इंद्रने लिये नाथ तब द्वितिय इंद्र ईशान ।। छत्र शिरधारा प्रभुके आनजी ॥ सनत्कुमार महेंद्र चमर दोऊ ढोरें इंद्र सुजान । शेप सुर करें जय जय भगवानजी॥
दोहा। नृत्य करें देवांगना, बाजें बहु विधि तूर ॥ चले जाय सुर गगणके, बीच शब्द रहा पूर ॥ जाहि सुन आनंद पाते करन ॥ आदि प्रभु प्रगटे ॥४॥ गिरि सुमेरु पर पांडक वनमें पांडु शिलापरं जाय॥ इंद्रने दिये नाथ पधरायजी । क्षीरोदधिसे नीर हेमघट ॥ . एक सहस्र वसु ल्याय । सुरोंने अन्हपाये जिन रायनी ॥
दोहा। एक चारि वसु जानिये, योजन कलश प्रमाण। सो ढारे जिन राजपर । हर्ष सुरोंने ठान । नाथको पहिराये आभरण ॥ आदि प्रभु प्रगटे तारण० ॥५॥ इस विधि कलशऽभिषेक इंद्र कर अवधि पुरीमें आय ॥ नाभि नृपको सोपे जिनरायजी ।वृषभनाथ कहि नाम इंद्रने - स्तुति मुखसे गाय ॥ शची युत भक्ति करी मनलायनी॥
दोहा। अमी अँगूठग मेलके, इंद्र नाय निज शीश ॥ दे अशीश गृह को गये, जयवंते हो ईश ॥ अवधिमें हर्ष हुआ घर घरनाआदि प्रभु प्रगटेतारण०॥६॥
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_ ज्ञानानन्द रत्नाकर लाख तिरेसठ पूर्व राज कर तब प्रभु भये उदास । तुरत लोकांतिकसुर आपास जी। स्तुति कर गृह गये शेषसुर इंद्र प्रभूके दास । रची शिवका प्रभुको सुखराशिजी ॥ .
- दोहा। तामें प्रभु आरूढ़ हो, गये तपो बन नाथ । वस्त्राभरण उतार के, लुचि केश निज हाथ ॥ तहातप लागे दुर्द्धरकरन ॥ आदि प्रभु प्रगटे तारण०॥७॥ कर तप घोर जिनेश हने खल चारि घातिया कर्म ॥ ज्ञानतहां उपजा पंचम पर्मजीसमोशरण हरि रचा प्रकाशा जहां प्रभुने निज धर्म । मिटाया भवि जीवों का भर्म जी।
दोहा। देश सहस्र बत्तीस में , कीना नाथ विहार ॥ अष्टापद से शिव गये, हनि अवातियाचार ॥ नाथूराम जहां न जन्मन मरन॥आदिप्रभु प्रगटे तारण०८
मूर्ख जैनीकी लावनी ॥ २३ ॥ जिन मत पाय विपर्यय वर्तं क्या जिनमत पाया॥ जिन्हें खल कुगुरुन बिहकाया जी॥
- (टेक). नर पर्याय पाय श्रावक कुल आर्य क्षेत्र प्रधान ॥ मिला दुर्लभ जिन पशुभ आनजी।चलेंचालि विपरीति ॥ कुगुरु शिक्षा पर कर श्रद्धाण । सुनो वर्णन तिसका घर ध्यानजी॥
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ज्ञानानन्द रत्नाकर। -
३९ ।
दोहा।
वीतराग छवि शुद्ध को , चंदनादि लपटाय। .. परिग्रह धारी गुरुन की, करत सेव अधिकाय ॥ कहें गुरुभाग्यनि से पाया जिन्हें खल कुगुरुन बिहकायाजी जो कुलका आचार उसी को मानत धर्म अजान ॥ नाम को करें पुण्य अरु दान जी ॥ लंघन को उपवास मानते विनातत्त्व श्रद्धाण । वृथा तन कष्ट सहें अज्ञानजी॥
दोहा। चर्वी को ले बत्तियां, जिन गृह में अधिकाय ॥ जालत अति उत्साह से , पोपत विषय अधाय ॥ हृदय में अहंकार छाया । जिन्हें खल कुगुरुन विहकायाजीर हरित फूल फल कर्पूरादिक जो हैं वस्तु सचित्त। करें जिन पूजा तिनसे नित्तजी [जैनी बन शठ पाप पंथमें अधिकलगातेचित्त।चाहते तिससे अपना हित्तनी ॥
दोहा। फूल माल जिन नाम की,करते शठनीलाम ।। नाम वरी को उमंगके, बड़बड़ बोलत दाम॥ अंधेरा विन विवेक छाया । जिन्हें खल कुगुरुन विहका याजी ३ वीच सभा में आप की पगड़ी लेय उतार । फेर वचे तिस को उच्चार जी । तहां कोई बहु दाम बढ़ा के लेय आप शिरधार । विना आज्ञा तुम्हरी उस वार जी॥
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४० ज्ञानानन्द रत्नाकर ।
दोहा। तिस पर कैसे करेंगे, आप तहां परणाम ॥ द्वैष रूप या हर्ष मय, सोचि कहो इस उम॥ न्याय का अवसर यह आया। जिन्हें सल कुशुरुन विहकाया जी ॥४॥ना देवाला कढ़ा प्रभू का जिसको बेचत माल॥ नहीं कुछहै जिनेंद्र कंगालजी । पुण्यकरो भंडार में सोधन देहु हाथसे डाल । पकड़ता कौन हाथ तिस काल जी॥
दोहा।
लीन लोक के नाथ की, करत प्रतिष्ठा हीन ॥ कौन अंथ आधार से, हमें बतावो चीन ॥ सुनन को मोमन ललचाया । जिन्हें खल कुशुरुन विहकायाजी॥६॥अभीतो बेचत माल फेरि बेचिहें सिंहासनछत्र॥ बुलाके बहु जैनी लिखि पत्रजी ॥ अभिमानी शठ धनी नाम को खरीदि करहैं तत्र । बहुत धन होवेगा एकत्रजी॥
दोहा। बड़ा फलाष्टक सभा में, तिन्हें सुने हैं टेर । तव क्षण में बहु द्रव्य का, हो जावेगा ढेर । भला जिगार नज़र आया॥
..जिन्हें खल कुगुरुन बिहकायाजी ॥६॥ निलोभी क्षत्री कुल में भये तीर्थकर अवतार ॥ तजा तिन सर्व परिग्रह भारजी। राज लक्ष्मी तृणसम तज ली वीतरागता धार । तजा सब संसारिक व्यवहारजी॥
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ज्ञानानन्द रत्नाकर।
४१
दोहा।।
सो अब लोभी वनिक के, घर आया जिन धर्म ॥ यासे धन तृष्णा बढ़ी, क्यों न करें लघु कर्म॥ कुसंगति का यह फल पाया। जिन्हें खल कुगुरुन विहका याजी ॥७॥ . हा कलिकाल कराल जिसमें नाना विधि की विपरीति ॥ करी रचना भेपिन तज नीतिजी ।ता ही को बहुते पंडित शठ पुष्ट करें करप्रीति । न देखें जिन शासन की गतिजी।
दोहा। जिन वच तिन वच की कुधी । करें नहीं पहिचान ॥ हठ ग्राही हो पक्ष को, तानत कर अभिमान ॥ . न छोड़त कुल क्रम की माया । जिन्हें शठ कुगुरुनविहका याजी ॥ ८॥ यह विचार कुछ नहीं हृदय में क्या जिनधमें सरूपाागिरत क्यों हठकरके भव कूपजी ॥ रची उपल की नाव कुगुरु ने डोवन को चिद्रूप। येहीअवतार कलंकी . भूपजी ॥
. दोहा। वीतरागके धर्म की, मुख्य यही पहिचान ॥ लोभ असत वच अरु नहीं, जहां हृदय अभिमान ॥ ताहि ना लखें तिमर छाया। जिन्हें खल कुगुरन बिहकायाजी॥ ९॥ केवल ज्ञान छवी जिन की तिस पर पंचामृत धारादेत कहें उत्सव जन्म अवारजी। नाम्बरी कोजि
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४२ ज्ञानानन्द रत्नाकर। न गृह कर जिन प्रतिमा तहां विस्ताराधरें तहां क्षेत्रपालला द्वार जी॥
दोहा।
तेल सिंदूर चढ़ाय के करें अंग सब लाल ॥ दरवाजे में घुसत ही, तिनको नावत भाल॥ पीछे जिन दर्शन दर्शाया। जिन्हें खल कुगुरुन बिहकाया जी॥३०॥रण श्रृंगार कथासुन के अति अंग अंग हपाय तत्त्व कथनी सुन अति अलसाय जी। कोई कलह बतावें कोई सोवें झोके खायें । कोई हो उदास घर उठ जायजी ।।
दोहा-अन्य मती सहा क्रिया, करते तहां अनेक॥ तर्पणादि कहां तक कहूं, करते नाहिं विवेक ॥ पंथ भेषिन का मन भाया । जिन्हें खल कुगुरुन विहकाया जी॥११॥धन बल कुल आरोग्य भोग। इनके मिलने की आस ॥ तथा चाहें घरी का नाशजी। इन फल माहि लुभाने अति ही ॥ नाहक सहते त्रास । करें बेला तेला उपवास जी॥
दोहा। देव धर्म गुरु परखिये, नाथूराम जिन भक्त ॥ तजि विकल्प निजरूप में, हूजे अब आसक्त ॥ समय पंचम जगमें छाया। जिन्हें खल कुगुरुन बिहकायाजी
___ कुटिल ढोंगी श्रावककी लावनी ॥ २४ ॥ त्रेपन क्रिया सुयुक्त सरावग को तुमसागुण मूल ॥ . जिन्होंके वचन वत्रके शूलजी॥
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ज्ञानानन्द रत्नाकर।
क्षायक सम्यक भयो तुम्हारे उभय पक्ष क्षय कार ।। वंश भेदन कुदार.वर धारजी। पर निंदा में करत न शंका निशांकित गुणधार । प्रशंसा करते निज हर वारजी॥ धन्य प्रशंसा योग्य सरावग वर्षत मुखसे फूल जिन्होंको॥ सुकृत कांक्षा तजी सर्व एक वर्तति पर अपकार ।। श्रेष्ठ यह नि:कांछितगुणधारजी । निर्विचिकित्सागुणभारी पर सुयश न सकत सहार । देखपरविभवहोताहयक्षारजी।। पंडितोंमें सिरमौर कल्पतरु कलिके श्रेष्ठ वंमूला|जिन्होंके०२ परगुण ढकन लखन पर अवगुण यह गुण दृष्टि अमूढ़ ॥ कहत यही उपगृहण गुण गूढजी। ऐसीशिक्षा देतजायजी॥ भवसागरमें बूढ़ । यही गुण थिती करण अति रूढ़नी ॥ भ्रात पुत्रका चित फाइत यह वात्सल्य गुणथूलाजिन्होंके० आप अधिक आरंभ करत औरोंको शिक्षा देताप्रभावनाझं ग अधिक अप हेतजी । वर्णन कहांतक करों इसी विधि सर्व गुणोंके खेत । कौतुकी पर दुःख देने प्रेतजी॥ देख सु यशपर जलत सदा ज्यों भठियारेकी चूल ॥ जिन्होंके०॥४॥
चिटीकी करते दया ऊंटको सावित जात निगल ।। । दयाके भवन ऐसे निश्चलजी। वनस्पतीकी रक्षाको बहु
त्यागे मूल रु फल । ठगें पंचेंद्रिनको कर छलजी॥ गल्लादिकमें हतें अनंते निशिदिन बस स्थूल। जिन्होंके०॥ मिथ्या यशके लोभी इससे निज करत प्रशंसा नित्त ।
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ज्ञानानन्द रत्नाकर। चापलोसियोंसे राखत हित्तनी । सत्य कहेसो लगे जहरसा जलै देखकर चित्त । बात सुन ताकी कोपे पित्तजी॥ ऐसी प्रकृति सज्जन करनिंदित डालो इसपरधूला जिन्होंके० एक विनय मैं करों आपसे आप विवेकी महा ॥ क्षमा कीजियो मैंने जो कहाजी । कविताईकी रीति झूठ दुईचन जाय नहीं सहा दिये विन ज्वाब जाय ना रहानी॥ मत मनमें लजित होके अपघात कीजियो भूल।जिन्होंके परनिंदा अरु आप बड़ाई करें सो हैं नर नीच ॥ बनें अति शुद्ध लगा मुख कीचजी । वेशर्मी से नहीं लजाते चार जनों के बीच । पक्ष अपनी की करते खींचणी॥ नाथूराम जिन भक्त करें बहु कहांतक वर्णनथूला|जिन्होंके.
जिनेंद्र स्तुति लावनी ॥ २५ ॥ नदेखा प्रभु तुमसा सानीजी । वर निज गुण का दानी ॥
(टेक) स्वार्थी देव नजर आते । ना शिव मग बतलाते ॥ आप ही जो गोते खाते । तिन से को सुख पाते। नहीं तुमसा केवल ज्ञानीजी । वर निज गुण का दानी ॥ १॥ निकट संसार मेरे आया। जो तुम दर्शन पाया। लखत मुख उर आनंद छाया ।सो जाय नहीं गाया। दरश थारा शिव सुख खानी जीवर निज गुणका दानी २ बहुत प्राणी तुमने तारे। जो थे दुःखिया भारे॥ गहे मैं चरण कमल थारे । सब हरो दुःख म्हारे॥
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ज्ञानानन्द रत्नाकर ।
४५
तुम सा को जां भव थिति हानी जी । वर निज गुण का दानी ३ सुयश इतना प्रभु जी लीजै । वसु कर्म रहित कीजै ॥ नाथूराम को सुबोध दीजै । जासे भवः थिति छीजै ॥ जपें तुम नाम भव्य प्रानी जी । वर निज गुण के दानी ॥४॥ तथा लावनी ॥ २६ ॥
प्रभूजी तुम विभुवन त्राता जी । दीजै जन को साता ॥ (टेक) भ्रमों मैं भववनमें भारी । वहु भांति देह धारी ॥ कभी नर कभी भया नारी । क्या कहूं विपति सारी ॥ मिले अब तुम शिव सुखदाता जी । दीर्जे जन को साता १ ॥ सुयश तुम गणपति से गावें । शक्रादिक शिर नावें । चरण आश्रय जो जन आयें । सो बेशक शिव पावें ॥ तुम्ही हो हितू पिता भ्राता जी | दीजै जन को साता ॥ २ ॥ लखा मैं दर्शन सुखदाई । निधि आज अतुल पाई || खुशी जो मोचित पर छाई । सो जाय नहीं गाई || शीशम चरणों में नाता जी ॥ दीजै जन को साता ॥ ३ ॥ जपै जो नाम प्रभू थारा | पावे भवि सुख भारा || नशे दुःख जन्मादिक सारा । उतरे भव जल पारा ॥ नाथूराम तुम पद को ध्याता जी | दीजै जनको साता ॥ ४॥ भव्य स्तुतिं लावनी ॥ २७ ॥
सुगुरु शिक्षा जिन ने मानी जी । भये धन्य वे ही प्रानी ॥
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ज्ञानानन्द रत्नाकर ।..
(टेक) विषय विषवत जिन ने चीन्हे । तज काम भोग दीन्हे ॥ धर्म व्रत जपतप उरलीने । निज आतम रस भीने ॥ . मुनी मन रुचि घर जिन वाणीजी॥भये धन्य वेही प्राणी॥ मनुज भव लहि सुकृत कीना। विधि चार दान दीना॥ कर्म वसुको तप कर क्षीना। शिव पुर वासा लीना॥ । वरी जिनजाय मुक्ति रानी जी । भये धन्य वे ही प्राणी॥२॥ मिटा अब बिजगतिका फेरा । तिष्ठे अविचल डेरा। हरा दुःख जन्म मरन केरा। तिनको प्रणाम मेरा ॥ अष्टविधिकीजिनथितिभानीजी । भये धन्यवेही प्राणी॥३॥ कवे वह दिन ऐसा पाऊँ । वसु विधि तरुको ढाऊँ॥ . पास उस शिवत्रियके जाऊँ। ना फेर यहां आऊँ। नाथूराम भक्ति हिये आनीजी ! भये धन्य वेही प्राणी ॥४॥
दर्शनकी लावनी ॥२८॥ आज प्रभुका दर्शन पायाजी । आनंद उरमें छाया॥
(टेक) मिटा मिथ्या मय आँधियारा । भ्रम नाश भया सारा॥ हुआ उर सम्यक उजियारा । शिव मार्ग पदधारा ।। कान सीझेगा मनभायाजी । आनंद उरमें छाया ॥१॥ कल्पतरु मेरे गृह फूला । देखत. सब दुःख भूला ॥ भया चिंतामणि अनुकूला। मोकों सब सुख मूला ॥ हर्ष कुछ जाय नहीं गायाजी। आनंद उरमें छाया ॥२॥ स्वपर पहिचान भई सारी । पर परणति बमिडारी॥
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ज्ञानानन्द रत्नाकर। सुगुरु वच श्रद्धा उर धारी। दुःख नाशक हितकारी ॥ लखत मुख मस्तक पद नायाजी। आनंद उरमें छाया॥ दया अव दया नाथ कीजै । निज चरण शरण दीजै ॥ दुःख मेरा जिसमें छीजै । सो करो सुयश लीजै ॥ नाथूराम निश्चय उर लायाजी। आनंद उरमें छाया॥॥
श्रीहदोंके जिन मंदिरके अतिशयकी लावनी ॥२९॥ श्रीश्यामवर्ण महाराज, गरीब निवाज, रखो मम लाज, मैं आया शरण ॥ तुम हो त्रिभुवनके नाथ जोड़ मैं हाथ न वाऊं माथ तुम्हारे चरणं ॥
(टेक) । तुम हो देवनके देव, देव करें सेव, सदा स्वयमेव तुम्हारी नाथ । सौ इंद्र नवामें भाल, दीनदयाल, तुमको त्रैकाल ॥ मैं नाऊं माथ । छवि तुम्हरी दर्शन योग्य, बहुत मनोज्ञ तजे भव भोग, तुमने एक साथ । श्रीवीतराग निदोप, गुगोंके कोष, हरो मम दोप, मैं जोड़ों हाथ ॥
_छड़। सुन भाई, श्रीवीतरागकी मूर्ति पूजो सदा ॥ सुन भाई, इति भीति भय विन होय ना कदा ॥
सर्पट। करें देव अतिशय नाना विधि हर्ष धार तनमें । तिन्हें देख आश्चर्यवान होते प्राणी मनमें ॥
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१८
ज्ञानानन्द रत्नाकर।
झेला। ऐसी अतिशय अधिकारी। होवें जिन ग्रेह मझारी । तिनको देखें नर नारी । उर हर्ष होय अतिभारी॥ अब तिनका कुछ विस्तार, सुनो नर नार, हर्ष उर धार जो चाहो तरण । तुमहो त्रिभुवनके नाथ ॥१॥ श्री हर्दाका जिन धाम, पवित्र जो ठाम, तहां किसी भामने॥ अविनय करी, दर्शनको आई अपवित्र, देख चरित्र, सुरों विचित्र, विक्रिया धरी । श्री शांति मूर्ति जिन देव, तिससे स्वयमेव, कढ़ापसेव, विसीहीवरी। श्री जिनप्रतिमासेमहा भूमि जल बहा, जाय ना कहा. लगी ज्यों झरी॥
सुन भाई, यह देख असंभव अतिशय सब थर हरे॥ सुन भाई, नर नारी सब आश्चर्यवान हुए खरे ॥
सर्पट। अन्य मती भी यह चरित्र सुन दर्शन को आये। धन्य २ मुख से कहि नर त्रिय जिनवर गुण गाये ॥
बहु विधि स्तुति नर नारी । कीनी जिन ग्रेह मझारी॥ तब देव विक्रिया सारी । होगयी क्षमा तिही बारी॥ यह देख अशुभ विक्रिया, सर्व नरत्रिया, त्याग बदक्रिया, लगे अपहरण । तुमहो त्रिभुवन के नाथ ॥२॥ अब कहूं दूसरी बार की, अतिशय सार, सुनो नर नार,
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ज्ञानानन्द रत्नाकर।
धार त्रय योग बनता था श्रीजिनधाम, लगा था काम, तहां तमाम, जुड़े थे लोग । तिन यह मन्सूबाठान, कि श्रीभगवान को छत पर आन, करो उद्योगा यहां पूजनकी विधि नहीं, बनेगी सही, सवन यह कही, समझ मनोग।
सुन भाई, जिन प्रतिमाको दो जने उठाने गये ॥ . सुन भाई, तिन से जिनवर किंचित नाचिगते भये ॥
सर्पट। लगे उठाने लोग बहुत तब कर २ के अति शोर ॥ हुआ प्रभु का आसन निश्चल चला न किंचित् जोर ॥
तव स्वप्न सुरों ने दीना। तुम हुए सकल मतिहीना ॥ यह कम चौड़ा है जीना। कैसे ले चढ़हो दीना। इससे यही पूजन सार, करो नर नार, हर्प उर धार । जो चाहो तरण । तुमहो त्रिभवन के नाथ ॥३॥ ऐसे अतिशय बहु भांति, जहां गुण पांति, करे सुर शांति चित्त अति धरें। जहां श्रावक नर त्रिय आय, द्रव्य बसु ल्याय, वचन मन कायसे, पूजें खरें। जब आवे भादों मास, होंय अव नाश सर्व उपवास पुरुषत्रियकरानाना विधि मंगल गाय, तूर वजाय, वचन मन काय से पूजें खरें।
सुन भाई, कार्तिक फाल्गुण आपाढ़ अंत दिन आठ।
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ज्ञानानन्द रत्नाकर सुन भाई, व्रत नंदीश्वर का रहे जहां शुभ ठाठ ॥
सपंट। दिन प्रति पूजा शास्त्र कथादिक होवें अधिकाई ॥ कटें पूर्व कृत पाप दृष्टि जब आते जिनराई ॥
झेला। धन्य जन्म उन्हींका सारा । देखें दर्शन प्रभु थारा । है यही मनोरथ म्हारा । नित दर्शन दो त्रय बारा ॥ यों विनती नाथूराम, करें वसुजाम, रखो निज धाम । मिटे भय मरण ॥ तुम हो त्रिभुवनके नाथ ॥ ४ ॥
शाखी। चितवत जिन नाम फल उपवास होत हजार जी। फल गमन करते दर्श को हो लाख प्रोषध सारजी ॥ हों कोड़ा कोड़ अनंत फल प्रोषध दरशते बारजी ॥ कर दरश नाथूराम ऐसे नाथका हर बारजी ॥
करो दर्शन जैनी निशि दिन । ग्रहो मत भोजन दर्शनविन। सार दर्शन बतलाया जिन। खबर इसकी मत भूलोछिन॥ समझ मन जो शिव की इच्छाानाथूराम मनधर यह शिक्षा
जिन दर्शनकी लावनी ॥ ३०॥ महाराज लाज रखो जनकी । जन चरण शरण आया। धन्य दिन तुम दर्शन पाया। लाज रखो जनकी ।
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ज्ञानानन्द रत्नाकर। ५१
(टेक) जिनराज नाथ त्रिभुवन के। त्रिभुवनके दुःख हर्ता । मुक्ति मगके प्रकाश कर्ता । चरणयुग थारे जो निज हिरदे धर्ता । कर्म हनि मुक्ति वधू वर्ता ॥ जैन ग्रंथों में ऐसा वर्णन गाया । धन्य दिन तुम दर्शन पाया ॥१॥ भये आज सफल पद मेरे । जो तुम तक चल आये। धन्य हग तुम दर्शन पाये।सफल कर मेरेजो पूजनफललाये। धन्य रसना जिन गुण गाये। सफल मममस्तकतुमचरन। तल नाया। धन्य दिन तुम दर्शन पाया॥२॥ महराज इंद्र शत थारी करते पसु विधि पूजा । अन्य तुम सम न देव दूजा । वचन मृदु थारे शशि मिश्रीके खूजा । धरत हिरदे शिव मग सूजा।विरद यह थारा प्रभु त्रिभुवन में छाया । धन्य दिन तुम दर्शन पाया ॥३॥ जिन राज दासकी विनती यह विनती सुन लीजे । नाश बसु विधि अरिका कीजै । वास शिव थल का निज सेवक को दीजै । कार्य तुम से मेरा सीजै । नाथूराम थारे दर्शन को ललचाया। धन्य दिन तुम दर्शन पाया ॥४॥
जिनभजनका उपदेश लावनी ॥ ३३॥ भजन जिनवर का कर त्रिविधि प्रकार । करें भवोदधिपार।
(टेक) अन्य देव सब रागी द्वैपी काम क्रोधकी खान । वीतराग सर्वोत्कृष्ट एक दाता पद निर्वाण ॥
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ज्ञानानन्द रत्नाकर। धर्म नौका में भवि जनको धार। करें भवोदधि पार ॥१॥ जिन सम देव अन्यको जगमें करे कमरिपुनाश । भ्रम तम हरन भानु जिनवानी तासम वचन प्रकाश ॥ ऐसे तो केवल जिनवर ही सार । करें भवोदधि पार ॥२॥ सेवत शत सुर राय हर्ष धर चरण कमल जिनराय। पूजत भविजन आय जिनालय बसुविधि द्रव्य चढ़ाय ॥ पूर्व पापों का करते संहार । करें भवोदधिपार ॥३॥ नाथूराम जिन भक्त ऐसे जिनवर को वारंवार । मस्तक नाय प्रणाम करें करनेको कर्म अप क्षार ॥ भक्ति जिनवर कोसुर शिव दातार । करें भवोदधिपार॥४॥
तथा ॥ ३२॥ जपो जिन राज नाम सच्चा । अन्य देव सब रागी द्वेषी मिथ्या मत स्वा॥
(टेक) कहत सब दया धर्मकी मूल । फिर हिंसा यज्ञादि में करते यह मूखोंकी भूल ॥ पड़ो उन वेद शास्त्रों पर धूल। जिनमें हिंसा धर्म प्ररूप्या शास्त्र नहीं वे शूल ।
दाहा। जो दुष्टों करकेरचे, काम क्रोध की खान । शास्त्र नहीं वे शस्त्र हैं, घातक निज गुण ज्ञान ॥ जैन विन अन्य वयन कच्चा । अन्य देव सव रागी ॥१॥ शस्त्र धारें क्रोधी कामी। या सेवक निर्बल शंकायुत सो
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- ज्ञानानन्द रत्नाकर। । अपूज्य नामी । दयायुत जो अंतर्यामी । सो क्यों हते • शस्त्र गहि पर जीहो त्रिभुवन स्वामी । ..
दोहा। नाश करे पर प्राण का, सो क्यों रहा दयाल । जैसे मेरी मात अरु, वांझ कहे यों बाल ॥ बांझ क्यों रही जना बच्चा । अन्य देव सब रागी ॥२॥ रमे ईश्वर निज पर नारी । तो कुशील का त्याग कहा क्यों यह अचरज भारी। गई मति मूखों की मारी। राग द्वैपकी खान तिन्हें कहें ईश्वर अवतारी ॥
दोहा। काम क्रोध वश जो मरें, सहें नरक दुःख आप। तिनको शठ ईश्वर कहें, सो कैसे हरें पाप । पड़े जो आप नरक खच्चा, अन्य देव सब रागी ॥३॥ सार एक वीतराग वाणी। जो सर्वज्ञ देव निज भाषी ।। त्रिभुवन पति ज्ञानी । जिसे हरि हल चक्री मानी ॥ सेवत शत सुर राय हर्ष घर सत गुरु वक्खानी॥
दोहा। जा वाणी के सुनत ही, होयजीव सुज्ञान। नाथूराम भव तजि लहें, निश्चय पद निर्वाण ॥ फेर नाजने ताहि जच्चा । अन्य देव सब रागी ॥४॥
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ज्ञानानन्द रत्नाकर।
चौवीसो तीर्थंकरकी लावनी ॥ ३३ ॥ दास कृत विनती चित धारो। आपतरे संसारोदधिसे अब मोहू तारो॥
(टेक) ऋषभ अजित संभव अभिनंदन सुमति २ दीजै ॥ पद्मप्रभु सुपार्स चंद्रप्रक्षु तिमर नाश कीजै ।।दासकृत ॥१॥ पुष्प देत शीतल श्रेयान्स बास पूज्य स्वामी। विमल अनंत धर्म श्रीशांति शांति करन नामीदास ०२। कुंथु अरह मल्लिनाथ प्रभू मुनि सुव्रत गुण गाऊं ॥ निमि नेमीश्वर पार्स नाथ सन्मति को शिरनाऊौदास ॥३॥ ऐसे जिन चौवीस जगत्रय ईश भजों बसु जाम ॥ नाथूराम भक्ति जिनकी से पावों अविचल ठामदास ॥४॥
देव धर्म गुरु परीक्षा की लावनी ३४ । करो देव गुरु धर्म परीक्षा शिक्षा हितकारी॥ . गुरु बार २ समझावें सब चेतो नर नारी ॥
(टेक) राग द्वेष मद मोह आदि जिनके वतै स्वयमेव । कामी क्रोधी छल धारी सो जानो सर्व कुदेव ॥ वीतराग सर्वज्ञ हितेच्छुक दे शिक्षा बहु भेव ॥ संसार भ्रमण नाजाके सो जानो सर्व सुदेव ॥ ऐसे लक्षण शुभ अशुभ देख पहिचान करो सारी ॥ गुरु बार २ समझा। सब चेतो नर नारी ॥१॥
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ज्ञानानन्द रत्नाकर। शठ सग्रंथ जो तपकरें घर बहु आडम्बर मानी ॥ ऋपि यती बनें वैरागी निज मुख से अज्ञानी ॥ धन लें तीर्थ के नाम बनें या परधन लेदानी ॥' . ये चिह्न कुगुरु के जानो जो भापे जिनवानी ॥ नित थोपें शिथिलाचार रहें रत काया से भारी ॥ गुरुवार २ समझाबैं सब चेतो नर नारी ॥ २ ॥ नित पो विषय कपाय और आहार सदोप करें। हिंसा मय धर्म बतायें सो जानो कुगुरु खरें ॥ जो निर्वाचक तप तपें दिगम्बर शांतिस्वरूपधरें। सो सुगुरु तिन्हें नित सेवो पर तारें आप तरें॥ अब सुनो कुधर्म सुधर्म रूप लखि पूजो धीधारी । गुरु वार २ समझायें सब चेतो नर नारी ॥३॥ पक्षपात युत राग द्वेष पोषक जामें उपदेश
शृंगार युद्ध क्रीडादि इनका स्वतन्त्र आदेश ॥ • ऐसा कुधर्म पहिचान तजो अवसान सजो मतलेश ॥
शुभ धर्म दयायुत पालो जो भाषा आप्त जिनेश । सम्यक रत्नत्रय रूप भूप त्रिभुवन पति हितकारी॥ गुरु वार २ समझायें सब चेतो नर नारी ॥४॥ यों परख सुदेव सुगुरु सुधर्म पीछे कीजै श्रद्धान ॥ बिन किये परीक्षा पूजे सो पीटें लोक अजान ॥ दमड़ी का वर्तन लेय उसे ठोके फिर २ दे कान॥ देवादि परखनापूजें जो जगमें रत्न महान ॥
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५६ - ज्ञालानन्द रत्नाकर। कहें नाथूराम जिन भक्त समझ क्यों बनते अविचारी ॥ गुरु वार २ समझायें सब चेतो नर नारी॥६॥
जिनेन्द्र स्तुति लावनी ॥ ३९ ॥ शरण सुखदाईजी महाराजाधन्य प्रभुनाई तुम्हारीजिनदेवा। तुम्हारी जिन देवाहोोतुम्हारी जिन देवा करें।सुर नर सेवा।
(टेक) अधम उद्धारक जी महाराज । भवोदधि तारक प्रभु त्रिभुवन त्राता । प्रभु त्रिभुवन त्राता हो, प्रभुत्रिभुवन त्राता । नमो शिव जुखदाता|बहुत भव भटकाजी महाराज अधोमुख लटका कर्म वश उर माता । कर्मवश उरमाताहो कर्म वश उर माता । नहीं पाई साता॥
__दोहा। तीनों पन दुःख में गये, सुख ना लयो लगार । अब कुछ पुण्य उदय भयो । पाये त्रिभुवन तार ॥ गया दुःख साराजी महाराज । लया सुख भारा । लसे भवोदधि खेदा । लखे भवोदधि खेवा हो । लखे भवोदधि खेवा । करें सुर नर सेवा ॥१॥ नरक दुःख पायाजीमहाराजा जाय नहीं गाया तुम्हीं जानत ज्ञानी।तुम्ही जानत ज्ञानी हो । तुम्ही जानत ज्ञानी। नहीं तुमसे छानी ॥ नारकी मारेंजी महाराज। क्रोध अति धारें। डाल पेलेंघानी ॥ डाल पेलें वानी हो। डाल पेलें पानी। सहैं अतिदुःख प्राणी॥
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ज्ञानानन्दरत्नाकर।
दोहा। सहे सागरों दुःख बने, घर घर जन्म अनेक ॥ तहां कोई रक्षक नहीं, भुगते आतम एक ॥ शरण अब आया जी महाराज चरण शिरनाया । तुम्हींहो सुधिलेवा ॥ तुम्ही हो सुधिलेवा हो । तुझी हो सुधिलेवा।करें सुर नर सेवा ॥२॥ पशुदुः खसाराजी महाराज । सहा अति भारा । कौन मुख से गावे ॥ कौन मुख से गावे हो। कौन मुख से गावे । पराश्रय जो पावे ॥ जोते अरु लादें जी महाराज । मारें अरु बांधे मांस तक कट जावे मांसतक कटजावे हो । मांस तक कट जावे । तहांको वचावे ॥
- दोहा। तृण पानीभी पेट भर, मिलत समय पर नाहि ॥ वहत भार अति धूप में, मिलै न पल भर छाहिं ।।। सुना यश भारीजी महाराज । जगतहितकारी । दीजै शिव सुख मेवा । दीजै शिव सुख मेवाहो । दाजै शिव सुख मेवा करें सुर नर सेवा ॥३॥ देव पद थाने जी महाराजा वृथा सुख माने । नहीं तहां सुख होता। नहीं तहां सुख होताहो नहीं तहां सुख होता।। विषय वश दिन खोता। मरण थिति आवेनी महाराज । महा विललावे । अधिक दुःखकररोता। अधिक दुःखकर रोताहो। अधिक दुःखकररोता। खाय विधि वश गोता।
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ज्ञानानन्द रत्नाकर |
दोहा । रंचन सुख संसार में, देखा चहुँ गति टोहि । यासे भव दुःख हरनको, भक्ति देहु निज मोहि ॥ नाथूराम जांचाजी महाराज । देहु सुख सांचा । भक्त लखि स्वयमेवा | भक्तलखि स्वयमेवा हो । भक्त लखि स्वयमेवा ॥ करें सुर नर सेवा ॥ ४ ॥
ऋषभ देव स्तुति लुप्त वर्णमाला में लावनी ॥ ३६ ॥ अजर अमरअव्ययपद दाता। आदीश्वर प्रभु जगतविख्याता इस पर भव सुखदाई | ईश्वर त्रिजगति के पारकरो जिनराई | (टेक)
उत्पति मरण जरा गद नाशों | ऊर्ध्वलोक शिखर दो बासो ||. ऋषभ ऋषी पद दाता । ऋआदिक देवीं सेवकरें तुममाता॥ एक चित्त जो तुम को ध्यावे । ऐश्वयित हो शिवपद पावे। .. ओर नजग आता | औरों को जगसे तारे अहो जगत्राता । अंग अंग मेरे हर्षायें । अह नाथ तुम दर्शन पाये । कर्मझड़े अधिकाई । ईश्वर त्रिजगतिके पारकरोजिनराई १ ॥ खल कर्मों मोहि बहुत भ्रमांया | गमन करत भव अंत न आया| घटी न भव थिति स्वामी | चरणाम्बुज थारे यासे गहे युग नामी | छत्र तीन थारे शिर सोहें । जतिजीव देखत मन मोहें || झलझलाट द्युति चामी। टूटें अववड़ीं होवे मुक ति आगामी ॥ ठहरे काल अनंततहांही। डोले ना इस जगकेमा हीं || ढांढस युत हर्षाई | ईश्वर त्रिजगति के पार करो जिन
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ज्ञानानन्दरत्नाकर। ५१ राई ॥२॥ णमों युग्म पद पद्म तुम्हारे । तीन भवन भवि तारण हारे । थकित अमर नर नारी । दर्शन हग देखेंना शति विपदा सारी ॥ धन्य २ सुर नर उच्चार । नवत चरण सब पाप निवारें ॥ पावें परम सुख भारी । फलदायक जग में तुम दर्शन सुखकारी ॥ बाप्तव गण धरादि गुण गावें। भली भांति गुण पार न पावें ॥ महिमा तिहूं जग छाई । ईश्वर त्रिजगति के पार करो जिनराई ॥३॥ युग चरणाम्बुज भृग करीजे । रक्षा कर निज सेवा दीजे | लीजे खबर जनकेरी । वर भक्ति तुम्हारी नाशकहै भव फेरी । शोभित तीन जगति के नायक । पट कायक जीवन सुखदायक ॥ सुधिलीजे प्रभु मेरी । हनियेविधि आठौ कीजे नहीं अब देरी ॥क्षण क्षण नाथूराम शिरनावें । त्रिभुवन पति थारे गुण गावें ॥ ज्ञान कला शुभ पाई । ईश्वरत्रिजगति के पारकरो जिनराई ॥४॥ . . . श्री नेमीश्वरकी लावनी ॥ ३७॥ यदुपती सती शुभ राजमती त्रिय त्यागी। महाराज जाय तप गिरिपर धाराजी । गहि ज्ञान चक्र कर वक्र मोह भटक्ष णमें माराजी॥
(टेक)
बल अतुल देख जिनवर का कृष्ण शकाने । महाराज रा जका लालच भारीजी। ताके वशहोके कृष्ण कुटिलताम नमें धारीजी ॥ करो नेमीश्वर का व्याह कही हरि स्याने।
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__ज्ञानानन्द रत्नाकर। महाराज उग्रसेनकी दुलारी जी। जांची नेमीश्वर काज सु शीला रजमति प्यारी जी ॥ सज के वरात जूनागढ़को हरि आये मार्ग में हरिने बन पशु बहुत विराये। महाराज लखे दृग नमि कुमाराजी ॥ गहि ज्ञान चक्र कर वक्र मोह भट क्षणमें माराजी ॥१॥रा में पशु अति आरति युत विललावें। महाराज अधिक दीनता दिखावें जी। लखिकै दयालनेमीश्वर को हग नीर बहावेजी। प्रभ कही रक्षकोंसे
क्यों पशु चिरवाये । महाराज कही उन यदुपति आजी। , व्याहनको तिन संग नीच नृपति सो इनको खावें जी॥
सुन श्रवण नमि प्रक्षु धृग २ वचन उचारे । सब विषयभोग विषमिश्रित अशन विचार महाराज मुकुट अचला पर डाराजी । गहि ज्ञानचक्र कर वक्र मोह भट क्षण में माराजी॥२॥ क्रम से बारह भावना प्रभू ने भाई। महाराज तुरत लोकांतिक आये जी। नति कर नियोग निज साधि फेर निज पुरको धाये जी ॥ तब सुर पति सुरयुत आय महोत्सव कीना । महाराज प्रभू शिवका बैठायेजी। फिर सहस्रान बन माहिं प्रभूको सुरपति लायेजी॥ तहां भूषण बसन उतार लुंच कच कीने । सिद्धन को नवि प्रभु पंच महावत लीने महाराज परिअह दिविधि निवारा जी ॥ गहि ज्ञान चक्र कर वक्र मोह भट क्षण में मारा जी ॥३॥जन राज मतीने सुनी लई प्रभु दिक्षा । महाराज उदासी मनपर छाईजी। धृग जान त्रिया
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ज्ञानानन्द रत्नाकर। पर्याय लेन व्रत गिरि को धाईजी ।। जब मात पिताने सुनी अधिक दुःख पाया।महाराज बहुत राज समझाई जी। जब देखीपरमउदास उदासी सब को आईजी ॥ राजुलने दिक्षा लई जाय जिनवर पर॥ मृदु-केश उपाड़े नारि आप कोमल कर । महाराज किया दुधर तप भाराजी। गहिज्ञा न०॥४॥ कृश करके काय कपाय अमरपद पाया । महाराज बरेगी अब शिवरानी जी। श्रीनेमि वातिया पाति भये प्रभु केवल ज्ञानी जी ॥ बहु भव्यन को संबोधि अवाती पाते। महाराज सर्व भवकी थिति हानीजी । वर अविनाशी पद पाय दिया जगको कर पानीजी ।। कहें नाथूराम जिन • भक्त सुनो जग नाता निज भक्ति देहु अरुमेंटो सर्व असाता। महाराज लिया पद पद्म सहाराजी गहि ज्ञान चक्र० ॥५॥
__ अथ दर्शनाष्टक (दोहा) श्री जिनवरं करुणायतन , तुम सम और नदेव ॥ भव समुद्र तारण तरण , धन्य तुम्हारी टेव ॥१॥ इंद्रादिक सुर असुर सब , तुम सेवक जिनराज । तुम प्रसाद सब सफल हों , मन वांछित मम काज ॥२॥ भ्रमण करत संसार में, भयो मुझे चिरकाल ॥ करगहि अव भवसिंधुसे, कादों दीनदयाल ॥ ३॥ एक ग्राम पति दुख हरे, तुम त्रिभुवन पति ईश। यासे मम रक्षा करो,शरण लिया जगदीश ॥ १॥ वीतराग छवि परम तुम, धारी नाशा दृष्टि।
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* દુર
ज्ञानानन्द रत्नाकर ।
देखत हग आनंद हो, दृढ़ आसन उत्कृष्ट ॥ ५ ॥ ज्ञाता दृष्ट्वा जगति के, जानत मम दुख आप । यासे क्या वर्णन करों, नाश करो भव ताप ॥ ६ ॥ विविध भाँति विनती करों, धरों चरण तल माथ । दुःख जलनिधि से काढ़िये, कर गहि करुणानाथ ॥ ७ ॥ तुम चरणाम्बुज मम हृदय, बास करों बसु ख़ाप । जब तक जग वासी रहों, मांगें नाथूराम ॥ ८ ॥ हजूरी (छप्पय )
देखे श्रीजिनराज आज विपदा सब भागी । देखे श्री जिनराज आज आतम रुचि जागी । देखे श्री जिनराज कार्य सीजे मन भाये । देखे श्री जिनराज आज सब पाप विलाये । दर्शतरविमुख श्रम नशो नेत्र कमल विगशित भये । धन्य आज दिवस मद अष्ट हरि अष्ट अंग तुमको नये ॥ १ ॥ देखे श्री 'जिनदेव सेव जिन करत सुरासुर । देखे श्री जिनदेव धर्म रथ बहन परम धुर || देखे श्री जिन देव पाप अताप विनाशक देखे श्री जिनदेव स्वपर तत्त्व के प्रकाशक | आनंदकंद जिन चंद्र प्रभु दर्शत हग हर्षत अमित । जन नाथूराम बंदतच रण परम सरम दातार नित ॥ २ ॥
श्री जिन दर्शन (दोहा)
दर्शन श्री जिनदेव का, नाशक है सब पाप || दर्शन सुर गति दाय है, साधन शिव सुख आप ॥ १ ॥ जिन दर्शन गुरुवंदना, इन से अघ क्षय होय ॥
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३
ज्ञानानन्द रत्नाकर। . ६३ यथा छिद्रयुक्त कर विपे, चिर तिष्टे ना सोय ॥२॥ वीतराग मुख दर्शियो, पन प्रभा सम लाल ॥ नेक जन्म कृत पापसो, दर्शत नाशे हाल ॥३॥ जिन दर्शन रवि सारिखा, होय जगत तम नाश ॥ . विगशित चित्त सरोज लखि, कर्ता अर्थ प्रकाश ॥४॥ धर्मामृत की वृष्टिको, इन्दु दरश जिनराय ॥ जन्म ज्वलन नाशे बड़े, सुखसागर अधिकाय ॥५॥ सप्त तत्त्व दरशें ग्रहै, बसुगुण सम्यकसार ।। शांति दिगम्बर मूर्तिजिन, दशि नमों बहु बार ॥६॥ चेतन रूप जिनेश गुण, आतम तत्त्व प्रकाश ॥ ऐसे श्री सिद्धान्तको, नित्य नमों सुख आस ॥७॥ अन्य शरण वांछों नहीं, तुम्हीं शरण स्वयमेव ॥ यासे करुणा भाव घर, रखो शरण जिन देव ॥ ८॥ त्रिजगति में इस जीवको, तारण हारा कोय। वीतराग वर देव विन, भया न आगे होय॥ ९॥ श्री जिन भक्ति सदा मिलो, प्रति दिन अव.२ माहि ॥ जब तक जग वासी रहों, अंतर बांछों नाहि ॥ १० ॥ चिन जिन प शिव हो नहीं, चाहो हो चक्रोश । धनी दरिद्री होत संब, जिनं बप से शिव ईश ॥११॥ जन्म-जन्म कृत पाय अव, कााट उपायाजाय॥ जन्म जरादिक मूल से, जिन वंदत क्षय होय ॥ १२ ॥ यह अनूप महिमा लखी, जिन दर्शन की व्यक्त ॥
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६४ . ज्ञानानन्द रत्नाकर।. .. यासे पद शरणा लिया, नाथूराम जिन भक्त ॥१३॥ जिन दर्शन लखि संस्कृत, भाषा किया बनाय ॥ भव्य जीव नित उर धरो, यह भव भव सुखदाय ॥१४॥ . २४ चौबीस जिनेंद्रकी स्तुति गौरीमें ॥१॥ . : शरण निज राखी नाभिके नन्द ॥
(टेक)
सुर तरु क्षीण भये लखि पुरजन दुःखी भये मतिमंद ॥ नाभि नृपति युत तुम तट आये दर्शत पायानन्द ॥१॥ ग्राम धाम रचना हरि कीनी । सुनि आदेश सुछंद ॥ निज मुख प्रभु षट कर्मवताये । उदर भरनको धंद ॥२॥ आदि तीर्थ वर्तावन हारे । प्रगटे आदि जिनेंद्र॥ . गरण धरादि कर पूजनीक प्रभु नवत चरण शतइंद्र ॥३॥ उपादेय पद पद्म तुम्हारे । त्रिजगति को सुख कंद ॥ नाथूराम जिन भक्त जगतका, चाहत भ्रमना बंद ॥१॥
अजित नाथ स्तुति ॥ २॥ . अजित मोहिं अजित अजित करो नाथः। ॥ .
(टेक) क्सु अजीत जीते विधि तुमने । ज्ञान चक्र गहि हाथ ॥ 1. ध्यान कृपान पानगहि क्षणमें । मोह किया निरमाथ ॥ ॥
अर्द्ध चतुर्थ काल गत प्रगटे । धर्म तीर्थ के नाथ ॥ . धर्म पोत धरि बहु भंवितारे। पहुँचे शिव ले साथ ॥२॥ - गज लक्षण लखि उभय चरण को। नमो भाल पर हाथ ॥ उरगण पति सुतहीन दासपर । कृपा करो गुण गाथ॥३॥
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ज्ञानानन्द रत्नाकर ।
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है तुम विरद प्रगट त्रिभुवनमें। तारे बहुत अनाथ ॥ नाथूराम जिनभक्तदास को । कीजे आज सनाथ ॥ ४ ॥ श्रीसंजवनाथ स्तुति ॥ ३ ॥ करो मो संभव भव दुःखदूर (टेक) इन कर्मों मोहि बहुत फिरायो । दुखी भयो भरपूर || लख चौरासी योनि चतुर गति छानी फिरं २ धूर ॥ १ ॥ त्रिभुवनमें कोई रक्षक नाहीं । काल वलीसे शूर ॥ यासे शरण लिया प्रभु थारा । राखो आप हजूर ॥ २ ॥ इसका निग्रह तुमही कीना । ज्ञान गदा से चूर || अब मेरे वसु विधि अरि नाशो । नित्य सताते कूर ॥ ३ ॥ भव गद नाशनको प्रभु तुमही । सार सजीवन मूर ॥ नाथूराम जिनभक्त तुम्हारे । नित २ बाजो तूर ॥ . श्रीअभिनंदननाथ स्तुति ॥ ४ ॥
हमारे श्री अभिनन्दन ईश (टेक)
अभिरुचि हमरी निज स्वभावमें । होय करो मुक्तीश । विषय भोगकी मिटे वासना । पाऊँ शिव जगदीश ॥ १॥ राग द्वेष संशय विमोह विभ्रम । तुमंडारे पीस || अव प्रभुजी मेरा रिपुनाशो | दारुण मोह खवीश ॥ २ ॥ वसु विधि मूलरु शाखा तिनकी । शत अरु वसु चालीस ।। ध्यान धनंजयसे सब जाती । कंटक यथा कृपीश ॥ ३ ॥ अजर अमर अव्ययपद जनको | दान करो विश्वोश || नाथूराम जिन भक्त नवावत । तुम पदपंकजशशि ॥ ४ ॥
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ज्ञानानन्द रत्नाकर।
श्रीसुमति नाथ स्तुति ॥ ५॥ सुमति प्रभु सुमति सुमति करो मेरी ॥ (टेक) कुमति सहित चिरकाल व्यतीतो। करत २ भव फेरी ॥ भव वन सघन विषे अति भटको । निज पुर वाट न हेरी॥ इंद्रिय विषयनमें रुचिठानी। दिन २ अधिक घनेरी॥ सुमति सुनारि दृष्टि नहीं आनी रमी कुमति नित चेरी२॥ कुमति कुमारग भटकाने को। मावस रैनि अँधेरी ॥ तुम मुख चंद्र लखत इम भागी। ज्यों मृगपति लखि छेरी।। अब सुमतीश ईश तुम महिमा । दिन दिन जग प्रगटेरी।। नाथूराम जिन भक्त तुम्हारे। नित्यरजो जय भेरी ॥४॥
. श्रीपमा स्तुति ॥६॥ जगति पति शोभित त्रिनगति भाल ।। (टेक) पद्म प्रभुपद पद्म प्रभालखि । पद्म प्रभा पामाल । क्षीण कला शशिंज्यों रवि आगे। भासत तज रंगलाल ॥ पद्म प्रभा तजि तुम पद पंकज । सेवत भवि अलि माल॥ पंकज प्राण हरे अलिके तुम । पद भवि अलि रक्षपाल २॥ ऐसे तुम पद पद्म प्रभा युत । लखि मन होत खुशाल ॥ ज्यों निर्धन पाये चिंतामणि । मानत हर्ष विशाल ॥ ३॥ कामधेनु सुरतरु चिंतामणि । तुम आगे क्या माल ॥ नाथूराम जिन भक्त व्यक्त तुम । त्रिभुवनके रखवाल men
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ज्ञानानन्द रत्नाकर।
श्रीसुपारसनाथ स्तुति ॥ ७॥ तुम्हारे चरण कमलका दास ॥ (टेक) । सत्य सुपारस तुम ही जगमे । पूरत जनकी आस ॥
सुवर्ण रूप होतसो क्षणमें । जो आवत तुम पास ॥ ३॥ कर्म कुधातु पनो पद परसे। होत क्षणकमें नाश ॥ स्ववरण शुद्ध चिदातम अपना । करता रूप प्रकाश ॥२॥ पारस कृत सुवरणको हरके । चोरादिक दें त्रास॥ . तुम पद परशे स्ववर्ण प्रगटे । हत्ता कोई न तास ॥३॥ शुद्ध सुपारस नाम तुम्हारा । सुनते होय हुलास ॥ नाथूराम जिन भक्त जग्ततजि । चाहत तुम तट वास ४॥
· श्रीचंद्रप्रभुनाथ स्तुति ॥ ८॥
चंद्र प्रभु राजत त्रिभुवन चंद्र ॥ (टेक) चंद्र कलंकी तुम निकलंकी । दाता जगदानंद ॥ योति रहित शशि होत दिवसमें । तुम धुति सदाअमंद॥ मेघ पटल ग्रह राहु आदिसे । चंद्रकला हो बंद ॥ तुम मुखचंद्र प्रकाशित अहो निशि । त्रिभुवनको सुखकंद होत उद्योत चंद्र जब निशिम । मुद्रित हो अरिवद ॥ तुम मुख चंद्र देख भावि पंकज । विगशित लहि आनंद३॥ चतुरनकाय देवनर खगपति । पूजत चरण शतेंद्र ॥ नाथूराम जिन भक्त तुम्हारी । चाहत सेव जिनेंद्र ॥ ४॥
श्रीपुष्पदंत स्तुति ॥९॥ तुम्हारा ध्यान धरत नित संत ॥ (टेक)
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ज्ञानानन्द रत्नाकर
मदन सदन तज जाय वसा वन । पुष्पनिमें भयवंत ॥ तुम पद आगे पुष्प चढ़त तव । या मिसि सेव करंत ॥१॥ कुंद पुष्पसे धवल प्रकाशित | अधिक तुम्हारे दंत || पुष्प धूप हिमसे कुम्हिलाते । तुम रद सदा दिपंत ॥ २ ॥ उज्ज्वल कीर्ति प्रकाशत थारी | श्वेत दशन भगवंत || पुष्पदंत यह नाम तुम्हारा । सार्थक त्रिभुवन कँत ॥ ३ ॥ अस्थि रहनयह महिमा पाईं। तुम आनन निवसंत ॥ नाथूराम जिन जो तुम सेवक । सो हो क्यों न महंत ॥ ४ ॥ श्री शीतल नाथ स्तुति ॥ १० ॥
निवारो शीतल भव आताप || (टेक)
शीतल मिष्टं वचन मृदु थारे । स्वतः स्वभावही आप ॥ खल कृत कटुक कठोरवचनका । नाशत तामस ताप ॥ १ ॥ जन्म न मरण जरा गढ़ दों का | फैला विश्व प्रताप || सो तुम अजर अमर पद पाके | नाशा सर्व कलाप ॥ २ ॥ वसु विधिने जग जीव सताये । करते नित्य विलाप ||
विधि ध्यान अग्रिमें दहितुम | उड़ादये कर भाप ||३|| है तुम सुयश प्रगट त्रिभुवनमें । संत करत गुण जाप || नाथूराम जिन भक्त होत क्षय | जन्म २ के पाप ॥ ४ ॥ श्रीश्रेयान्सनाथ स्तुति ॥ ११ ॥
जपों मैं श्री श्रेयान्स जिनेश || (टेक)
श्रेय रूप प्रभु श्रेय कर्त्ता । जग जनको परमेश ||
भवि जीवों हेतु तुम्हारा | श्रेय रूप आदेश ॥ १ ॥
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ज्ञानानन्द रत्नाकर। ६९ द्वादश सभा भई अति प्रफुलित । सुनत श्रेय उपदेश । श्रेय रूप ध्वनि वन गर्जनसी । झेलत ताहि गणेश ॥२॥ जाति विरोध तजा सब जीवन । कीड़त नकुलरुशेश ॥ श्रेय हेत नित तुम गुण गावत। मुनि गण और सुरेश३॥ सत्य नाम श्रेयान्स तुम्हारा नाश करो भव केश ॥ नाथूराम जिन भक्त तुम्हारी । जाचत भक्त हमेश॥४॥
श्रीवास पूज्य स्तुति ॥ १२ ॥ तुम्हारे युगल चरण गुण राश ॥ (टेक) दीजै वास पूज्य युग पद तट । पूरे जनकी आस ॥ पूज्य वास प्रभु तुम पद तटका । नाशक वसुविधि त्रास तीर्थरूप तीरथके कर्ता दाता शिव पुर वास ॥ अजर अमर पद बहु भवि पाया। जो आये तुमपास॥२॥ गणधरादि मुनि तुम गुण गावें । प्रगट विश्व इतिहास ॥ जसवाल वृद्ध सब जानता अनुपम भानु प्रकाश ॥३॥ वसु विधि शत्रु प्रगट जो जगमें । जाले ध्यान तास ॥ नाथूराम जिन भक्त दासके । कीजै अब रिपु नाश ॥ ४॥
श्रीविमलनाथ स्तुति ॥ १३ ॥ प्रभुजी विमल विमल करो आज ॥ (टेक) अव मल मलिन जगति जन सबही । मोह राजके राज ॥ कलिमल मोह नाशिके सवही। विमल भये जिनराज ॥१॥ लोभ महामलसे अच्छादित । अदना अरु महाराज ॥ सो तुम विश्व लक्षि इम त्यागी । ज्यों कांचुलि अहिराजार
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ज्ञानानन्द रत्नाकर। राग द्वेष मिथ्या तरु अव्रत । इत्यादिक अप साज ॥ सम्यक जलसे धोय बहाये । शुद्धातमके काज ॥३॥ निर्मल ज्ञान स्वरूप विराजत । जैसे तुम शिवराज ॥ नाथूराम को तैसा कीजे । विमल गरीब निवाज ॥४॥
श्रीअनंत नाथस्तुति ॥१४॥ प्रभुजी तुम गुणका नहीं अंत ॥ (टेक) . ज्यों आकाश महा विस्तीर्ण । अंगुलसे न नपंत॥ . अथवा मेव बूंदकी गणना। को मुखसे उचरंत ॥१॥ गण धरादिसे थकित भये जो चारि ज्ञान घर संत ॥ तो तुम गुणका अंतन प्रभुजी। सार्थक नाम अनंत ॥२॥ दर्शन ज्ञान और सुख वीर्य । ये अनंत भगवंत ॥ चारोही एकत्र तुम्हारे । राजत त्रिभुवन कंत ॥३॥ अनुपम गुणके कोष जिनेश्वर । त्रिभुवन माहि महंत ॥ नाथूराम जिन भक्त तुम्हारे । नित गुण गान करत ॥ ४॥
__श्रीधर्मनाथ स्तुति ॥ १५॥ उतारो धर्म पोत धर धर्म ॥ (टेक) उभय प्रकार धर्म मुनि श्रावक । जीव दया मय पर्म ॥ शिव मग भासक ज्ञान प्रकाशक । दीजे नाशक कर्म॥१॥ वसु विधिने जगजीव सताये । बतला पंथ अधर्म ॥ मोह महा मद-प्यास सबोंको । अधिक बढ़ाया भर्म ॥२॥ थकित भये मग पावत नाहीं। निज पुरका मुखसम ॥ चहुँ गति भार बहुत निशि वासर। तजि निजबल भये नर्म३
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ज्ञानानन्द रत्नाकर। ७१ अबतक प्रभु तुमको बिन जाने । भव २ लयो असमं ॥ नाथूराम जिन भक्त तुम्हारा । जाना अब प्रभु मम॥ ४॥
श्रीशांतिनाथ स्तुति ॥ १६ ॥ मैं वंदों जय जय शांति जिनेश ॥(टेक) भव आताप जगति जन दाहे । सहत प्रचुर नित केश ॥ ता नाशंन सम्यक जल वा । कीनी तुम परमेश ॥ १॥ कमौरंगके गलौंदयसे । वाधक रंक नरेश ॥ सो तुम वचन सुधाकर सींचे। कर विहार बहुदेश ॥२॥ शांति दशा तुम्हरी लखि हिंसक । सौम भये हरि शेश ॥ दया धर्म बहु जीवन धारा । सुनि प्रभु तुम उपदेश ॥३॥ तुम पद सेय बहुत भविं तरिगये । बहुतक भये सुरेश। नाथूराम जिन भक्त तुम्हारा । गावत सुयश गणेश ॥ ४॥
॥ श्रीकुंथुनाथ स्तुति १७॥ जपों में श्रीपति कुंथु कृपाल ॥(टेक) कुंथू आदि सूक्ष्म जीवोंसे । गजतक महा विशाल ॥ तिन सबकी तुम रक्षा कीनी । सत्य कुंथु जगपाल ॥३॥ जीव दया मय धर्म प्रकाशक । नाशक वसुविधि जाल ॥ भासग ज्ञेय द्रव्य गुण पर्यय । युगपत तीनों काल ॥ २॥ कुंथुनाथ शुभ नाम तुम्हारा । सार्थक परम दयाल ॥ इंद्रादिक बुध तुम गुण गावत । नावत तुमपद भाल ॥३॥ . बहुतक जीवतरे अरु तरिहै । सुनि तुम वचन रसाल ॥ नाथूराम जिन भक्त धरी जिन । निजपट तुमगुणमाल ॥
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१२
ज्ञानानन्द रत्नाकर।
श्रीअरहनाथ स्तुति ॥ १८ ॥ अरह प्रभु मेरे आर करो चूर ॥(टेक) वसु विधि अघ निधि मोहादिक ये । महाबली अतिक्रूर ॥ दुर्ध्यानादि मित्र बहु तिनके । पृष्ट कुधी भरपूर॥१॥ तीन लोक में व्यापि रहे ये । शूरन में महाशूर ॥ तुमसे नाशि ये ऐसे भागे।ज्यों रविसे तम दूर ॥२॥ जयवंते जग माहि रहो प्रभु । बढ़े सुयश जगभूर ॥ जन्मन मरन जरा गद हरिके । राखो आप हजूर ॥३॥ इस संसार रोगके हो। तुमहि सजीवन मर ॥ नाथूरामका भवगद नाशो। बाजें आनंद तूर ॥ ४॥
श्रीमल्लिनाथ स्तुति ॥ १९॥ तुम्ही हो सांचे श्री मल्लेश ॥ (टेक) मल्लनि में महा मल्ल मोह भट । देत जगति को क्लेश ॥ ताको ध्यान गदा कर चूरो।क्षण में मल्लि जिनेश ॥१॥ काम महा भटको यों मारा। गज को यथा मृगेश ॥ अब प्रभु मरा हरा असाता। वदना रहे न लेश॥२॥ रहों सदा आरोग्य तुम्हारे । गाऊं गुण परमेश ॥ तुमसे दाता छोड़ दयानिधि । किसके जाऊं पेश ॥३॥ संकट मोचन विरद तुम्हारा । गावत सुयश सुरेश ॥ नाथूराम जिन भक्त दासपर । कीजे कृपा महेश ॥ ४॥
श्रीमुनिसुव्रतनाथ स्तुति ॥ २० ॥ त्रिजग पति श्रीमुनि सुत्रत देव ।। (टेक) श्रेष्ठ महाव्रत धारक जो मुनि । तिन पति तुम जिनदेव ॥
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ज्ञानानन्द रत्नाकर। यासे सत्य नाम मुनि सुत्रत । नाथ तुम्हारा एवं ॥१॥ मुनि गण तुमसे धारि महावत । करी सदा पद सेव ॥ यासे पति तुम हो मुनि गणके । व्रत दाता स्वयमेव ॥२॥ बिन कारण तुम जग हितकारी । धन्य तुम्हारी टेक॥ को कवि महिमा कहे प्रभूजी । नाहीं गुणोंका छेव ॥३॥ अब प्रभु भव दुःख हरो हमारा। दीन जान सुधि लेव ॥ नाथूराम जिन भक्त दासको। धर्म पोत पर खेव ॥४॥
श्रीनोमनाथ स्तुति ॥ २१ ॥ मैं वंदों श्रीनमिनाथ जिनेंद्र ॥ टेक ॥ पंद्रह मास रन बरसाये । हरि आदेश धनेंद्र ॥ जन्मतही ऐरापति सजके । आये सर्व सुरेंद्र ॥१॥ विनय सहित हरिने प्रभु लेके । थापे आप गजेंद्र ॥ जय जय शब्द करत सब सुरगण गये कनिक नागेंद्र ॥२॥ पांडु शिला पर थापि प्रभूको । न्हौन कराया इंद्र॥ वस्त्राभरण सजाय लाय पुर। सोंपे विजय नरेन्द्र ॥३॥ तांडवं नृत्य नृपति गृह करके । स्वर्ग गये निदर्शद्र ।। नाथूराम जिन भक्त रहो नित । जयवंते तीथेंद्र ॥४॥
श्रीनेमिनाथ स्तुति ॥ २२॥ जगतिपति यदुकुल तिलक विशाल ॥ टेक ॥ पशु बंधन लखि कंकण तोड़े। करुणासागर हाल ॥ मुकुट पटकि.प्रभु संयम लीना । चढ़ि गिरि नारि कृपाल। राज मतीको दिक्षा दीनी । श्रीपति दीनदयाल ॥
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ज्ञानानन्द रत्नाकर। . ता प्रसाद त्रिय लिंग छेदके । भयो सुदेव रसाल ॥ स्थ चारित्र चलावन को तुम । सार्थक नेमि कमाल ॥ इंद्रादिक तुम चरण कमलको। नावत प्रतिदिन भाल॥३॥ करुणासिंधु दया कर जनके । काटो वसु विधि जाल । नाथूराम जिन भक्त तुम्हारी । नित्य जपें गुणमाल ॥४॥
__ श्रीपारसनाथ स्तुति ॥ २३ ॥
जपों मैं पारस प्रभु सुखकंद ॥ टेक ॥ उग्र वंश मणि अश्वसेन नृप । तिन सुत निभवन चंद्र। उरग चिह्न लखि प्रभु पद बंदों। होय कर्म रिपु मंद ॥३॥ जन्म पुरी शुभ नग्र वनारस । वामा देवी के नंद ।। अहि दम्पति तुम वचन सुनत भये । पद्मावति धरनेंद्र ॥ श्याम वरण तनु सजल जलद सम । दर्शत हो आनंद ॥ कमठ दुष्ट उपसर्ग किया तव । कीनी सेव फनेंद्र ॥ ३॥ तुम गुण माल जपत इंद्रादिक । गावत विरद गद्र! नाथूराम जिन भक्त जगतिसे। तारक तुमही जिनेंद्र ॥४॥
श्रीमहावीरस्वामीकी स्तुति ॥ २४ ॥ मैं वंदों सन्मति श्रीजिनदेव ॥ (टेक) महावीर महावीर वीर पति । पईमान स्वयमेव ॥ इत्यादिक बहु नाम तुम्हारे । नाहीं गुणों का छेव ॥१॥ भव तन भोग विनश्वर जाने । हेय गिनी जग टेव ॥ राज काज अब साज जान तज । कीना तप बहुभेव ॥२॥ . घाति कर्म हति जगदुख पाता। पतितन को दे ठेव ॥
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ज्ञानानन्द रत्नाकर। ८७
(टेक) नाभि नृपति कुल गगण दिवाकर भवि सरोज विगसन नामी शिव सुखदाता त्रिजगति त्राता ना हरि हर क्रोधी कामीर तुम पद पद्मगंध अलि सेवत अनागार अरु भवि धामी ३ है नाथूराम की विनय यही ना होय भ्रमण भव आगामी॥४॥
तथा ॥२॥ श्रीपतिकरुणाकर वीर धीर भव भ्रमणहरो प्रभुनीमराटिक) भववन गहन भ्रमत चिर वीता करत तहीं फिररफेरा॥१॥ जग हितकारी वानि सुधारी प्रगट विरद जगमें तेरा ॥२॥ सुर नर मुनि खग तुमयश गावत पावस शिव अविचलडेरा३ नाथूराम को हे जगदश्विर को पद्म पद का चेरा ॥४॥
तथा ॥३॥ वामानंदन प्रभु पारसकें पद जजत होत अव क्षारक्षार(टेक) उग्रवंश मणि अश्वसेन नृप तारक भवोदधि पार पार॥१॥ जन्म पुरी शुभ नगर बनारस वसत गंग तट सारसार ॥२॥ सुर नरादि पद वंदत जिनके कहत वचन मुख तार तार॥३ नाथूराम जिन भक्त नवत नित चरण कमल को बार बार ४
, दादरा ॥१॥ कीजे आप समान, मेरे प्रभुहो कीजै आप समान ।। (टेक)
और देव सव स्वारथी हैं, चाहत अपना मान॥१॥ तुम निज गुण दातार होजी, दीजे निन गुण दान ॥२॥ देत न तुम गुण पटत हैं जी, तुम अक्षय गुणवान ॥३॥
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ज्ञानानन्द रत्नाकर। नाथूराम ज्यों दीपसेजी, जोक्त दीप न हान ॥ ४॥
दादरा ॥१॥ करत चेत न प्राणी बहिरमुख ॥ (टेक ) तन धन यौवन लोग कुटुम सब, क्षणभंगुर जिंदगानी ॥३॥ विषय भोग में मन अहो निशि पर संगति रुचि ठानी ॥२॥ कुगुरु कुदेव कुधर्म जजे नित, शून्य हृदय दुर ध्यानी ॥३॥ नाथूराम कहें मूढ़ सुनेना, हित कर्ता जिन वानी ॥४॥
तथा ॥२॥ प्रेम कर जिनवानी सुनो भवि॥ (टेक ) भव अज्ञान ताप तम नाशक, चंद्रकला सुख दानी ॥३॥ भवि चातकके तुष्ट करनको, स्वात रिक्षका पानी ॥२॥ जन्मन मरन जरा गद नाशक, भाषी केवल ज्ञानी ॥३॥ नाथूराम जिन भक्त न नित, तास पद रुचिठानी ॥४॥
तथा॥३॥ जिन दर्शन सुखकारी जगतमें। (टेक) जिन मुखलखत नशत मिथ्यातम, प्रगटति सुमति उजारी सम्यक रत्नत्रय निधि दाता, अष्ट कर्म क्षयकारी॥२॥ जीव अनेक तरे दर्शनसे, पाया शिव सुख भारी ॥३॥ नाथूराम जिन भक्त दरशसे प्रगटत सुख अधिकारी ॥४॥
पद !!३॥ नेमि प्रभू विन कैसे रहों मैं ॥ (टेक) नौ भवसे मेरी प्रीति लगी है, ताका अंतर कैसे सहोमैं ॥३॥
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ज्ञानानन्द रत्नाकर। . ८९ तीरथपतिसे पतिको पाके, औरनसे पति कैसे कहों में ॥२॥ . तारण तरण जान प्रभु पाके, भवसागरमें कैसे वहों में ॥३॥ नाथूराम त्रिजगति-पति पाके, औरनके पद कैसे गहों में ॥४॥
चेतकर मन मेरे अरज़ प्रभुसे अब कोनै । ( टेक) और देवकी सेवसेजी, धर्म गिरहका छोजे ॥१॥ वे त्रिभुवन नाथ हैंजी, कार्य तेरा साजै ॥२॥ अवं जिनके सुप्रताप सेजी, रूप निज लखि लीजै ॥३॥ नाथूराम दृढ़ राखके चित, प्रभु चरणोंमें दीजै॥४॥
हे प्रभु हजै दयाल, अरज जनकी सुन लीजै ॥ (टेक) आठ कर्म प्रभु है बली ये, इलसे कुछ न वशीने ॥ १॥ ये हमको दुःख देत हैं जी, इनको क्षय कर दीजै ॥२॥ . तुम प्रसाद निश्चय प्रभूनी, कार्य मेरा सीजै ॥३॥ नाथूराम निज दासकोनी, प्रभु अविचल पद दीनै ।। ४ ॥
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श्री आदीश्वर भगवान, भव दुःख दूर करो। (टेक) भ्रमत २ चारा गतिमाही, बहुत भयो हरान॥१॥ और कुदेवनकी सेवासे, भुगते दुःख महान ॥२॥ अब आयो प्रभु शरण तुम्हारे, राखो सेवक जान ॥३॥ नाथूराम प्रभु थारी भक्तिसे, जांचन पद निर्वान ॥ ४ ॥
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ज्ञानानन्द रत्नाकर ।
तथा ॥२॥ पारस प्रभु होउ दयाल, विनती लखलीजै ॥ (टेक) भटकत फिरत महाभव वनमें, बहुत भयो बेहाल ॥१॥ नरक त्रियंचनके दुःख भुगते पूरो करके काल ॥२॥ देवनके सुखमें दुःख प्रगटो, जब मुरझानी माल ॥३॥ कठिन २ से नर भव पायो, अब कीजै प्रतिपाल ॥४॥ नाथूराम दोनोंकर जोड़ें, काटो कोंके जाल ॥५॥
तथा ॥३॥ प्रभु दर्शन दीजै मोहि, श्रीमहावीर स्वामी॥ (टेक) दर्शन करत पाप सब नाशें, अशुभ कर्म क्षय होय ॥१॥ तुम हो तारण तरण जिनेश्वर, तुम सम और न कोय ॥२॥ पावापुरसे मुक्ति गये प्रश, कर्म कलंकहि धोय ॥३॥ नाथूराम प्रभुके दर्शनसे, अजर अमर पद होय ॥४॥
आरती ॥१॥ तुम भवोदधि तारण सेत, श्रीजिनदेवहो ॥ (टेक) आरति तुम्हरी मैं करों जिनदेवहो, निज अरति निवारण हेत श्रीजिनदेवहो ॥ १ ॥ दीप किया भ्रम नाशने जिनदेवहो, मग दृष्टि पड़े शिवखेत श्रीजिनदेवहो ॥२॥ नृत्य करों इस हेतुसे जिनदेवहो, भव भ्रमण मिटे दुख देत श्रीजिनदेवहो॥३॥ गावत शुण तुम्हरे प्रभू जिनदेवहो, भव रुदन हरोकर चेत श्रीजिनदेवहो॥ १॥ नाथूराम शिव बासको जिन देवहो, करें आरति भक्ति समेत श्रीजिनदेवहो॥५॥
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ज्ञानानन्दरत्नाकर।
बधाई ॥३॥ वाजें आनंद बधाइयां हो, नाभि नृपके द्वारे ॥ (टेक) जन्म लिया श्री आदि जिनेंद्र करन कल्याणक आये इंद्र। मेरु शिखरपरवासव जाय, प्रभुजीकान्हौन कियाहया२। कर श्रृंगार अवधि पुरल्याय,तांडव नृत्य किया सुरराय॥३॥ नाथूराम वे त्रिभुवन ईश, राजत लोक शिखरके शीस ॥॥
पद ॥१॥ वंदे चंद्र प्रभु नाथ सफल जन्म भयो मेरा ॥ (टेक) युग पद सफल भये चलते सफल भये चलते, पूनत भय युगहाथ ॥३॥लाचन सफल मुख.दरश सफल मुख दरहो, नवन करत भयो माथ ॥२॥ रसना सफल गुण गायें सफल गुण गायें, मन लगें एक साथ ॥३॥ सोजत कार्य सब भये कार्य सब भये, नाथूराम सनाथ ॥३॥
देशका सोरठा ॥३॥ स्वामी मेरा काटो करम कलेश,तुम विन हरण वृपभेशटिक) त्रिभुवन भूपणहत दुःख दूपण थारा गावें सुयश सुरेश ॥१॥ अधमोद्धारक भवोदधि तारक जनको दाता हित उपदेश२।। तुमसा दाता और न त्राता प्रभुजी ताके जाऊं पेश ॥३॥ नाथूराम जन जाचत निनधन यासे वाधा रहे न लेश ॥४॥
मल्हार ॥ ३॥ यांको श्रीगुरु शिक्षा देत भली, क्योंना चेतत चेतन प्यारे (टेक) मिथ्या तपन मिटी, दिशि प्रगटे, आनंद अम्बर
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९२ ___ ज्ञानानन्द रत्नाकर। कारे॥१॥ जिन बच मेघ झरत अति शीतल, सम्यक बहति बयारे ॥२॥ भवि चातक हित जान ग्रहणकर, नाशे कष्ट तृषारे ॥३॥ नाथूराम जिन भक्त कठिन है अवसर वारंवारे॥४॥. . . __ . . गजलं॥१॥ . मिले दीदार पारसको, आरजुई हमारी है ॥ (टेक) तआला हूतू दुनियामें, वयांकरे खल्क सारी है ॥ कल दुश्मन किये आठो, राह जन्नत निकारी है ॥१॥ मोह जालिमने खिल्कतके गले जंजीर डारी है। परेशां हैं सभीयासे.ई बद मूजी शिकारी है ॥२॥ मिहर बंदा पै अब कीजै, पेश अर्जी गुजारी है ॥ मेरे दुश्मन फना कीजै, मुझे तकलीफ भारी है ॥३ नफर नथमलकी ऐकादिर गुजारिश वारवारी है ॥ करो हम्बार फिदवीको मिहरवानी तुम्हारी है ॥४॥
३
पद ॥१॥
वृषभ पति जन्मे जग हितकारी ॥ टेक ।। गर्भवाससे मास प्रथम छः हरिने अवधि विचारी॥ धनद नग्र रचि मणि बरसाये, पन्द्रह मास-त्रिवारी ॥१॥ षट कुमारिका गर्भ सोधना करी प्रीति अति धारी॥ सुरपति सुरयुत गर्भ महोत्सव कीना आनंदकारी ॥२॥ जन्म समय हरि सुर गिरिजाके न्हौन कराया भारी ॥ क्षीरोदधि जल सहस्र अठोत्तर घट भर धाराडारी ॥३॥
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ज्ञानानन्द रत्नाकर। ९३ वस्त्राभरण सजाय लायपुर तांडव नृत्य कियारी ॥ तात मातकोसोपे श्रीजिन नाथूराम भवतारी॥४॥
- कवित्त । सुनि जिन वानी जिनआनी निज उरमाहि तेही भव्य प्राणी शिवरांनी डर भाये हैं॥१॥ बसु विधि मलहर आपको विमल कर जन्म जलधि तरि शिवलोक पाये हैं ॥२॥ वसु गुण व्यवहार निहचे अनंत चार लोकालोक ज्ञाता जगत्राता कहलाये हैं॥ ३॥ नाथूराम सदा काल बसि हैं त्रिजग भाल तिनके सरोज पद अंग वसुनाये हैं ॥४॥तीनों लोक घूम आया तुझसा तो कहीं न पाया जैसा रूप गाया वेद शास्त्र बीच खासा है ।। आठो कर्म डारे चूर जगमें जो महाशूर मेरा दुःख होय दूर पूरे तर आशा है । त्रिभुवन पति पाया नाम फिर क्यों सिद्ध होन काम एक ग्राम पती बनी देत सो दिलाशा है । नाथूराम जिन भक्त जानत तू ज्ञेय व्यक्त बैग है मोक्ष वीच देखता तमाशा है॥२॥
__ पद ॥ १॥ सुर नर नाग खगेंद्र बंद मुनि तुम गुणगान करें। (टेक) पूर्व कृत दुःकृत सव हरके पुण्य भंडार भरें॥३॥ सम्यक दर्शन ज्ञान चरण लहि पुनि भवसिंधु तरें॥२॥ नाथूराम धाम बसि शिवके फिर जन्में न मरें॥३॥
• पद ॥१॥ शिखर सम्मेदके दरश करनको चलो भविकमनल्यायरेटिक
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३
ज्ञानानन्द रत्नाकर। धीस टोंक से बीस जिनेश्वर अरु असंख्य मुनिरायरे ॥ नित्य निरंजन सिद्ध भये हैं आठो कर्म खिपायरे ॥३॥ जो भवि वंदना करें तहां की शुद्ध वचन मन कायरे॥ नक त्रियंच तजे गति दोनों सुर नर के सुख पायरे॥२॥ निकट भव्य वह कुछ भव घर के होहै शिव पुर रायरे ।। यासे भव्य सफल भव कीजै श्रावक कुल में आयरे॥३॥ नाथूराम जिन भक्त तहां के वंदन को हपायरे ॥ वार २ अनुमोदन राखो फिर २ वदो जायरे ॥४॥
पद ॥१॥ हे प्रभु जनकी विनय सुनीजै । जन्म जलधि के पारकरी
(टेक) भ्रमण करत चिरकाल व्यतीतो, तुम विन यह भव फंद नछीजै॥१॥ गणधरादि मुनि तुम गुण गावत,यासे प्रभु इतना यश लीजै ॥२॥ अष्ट कर्म अरि नित्य सतावत, इन नाशन को अनुभव दीजै ॥३॥ जब तक ये खल कमें नशेना, नाथूराम को सेवक कीजै ॥४॥ . चौबीस तीर्थकर स्तुति (विनती)
दोहाचौबीसो जिन पद कमल, वन्दन करों त्रिकाल । करो भवोदधि पार अय, काटो वसु विधि जाल ॥ १॥
(चाल जगति गुरुकी) - ऋषभ नाथ ऋषि ईश तुम ऋषिधर्म चलायो।
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ज्ञानानन्द रत्नाकर। ९५ अजित अजित अरि जीति वसु विधि शिव पद पायो॥२॥ संभव संभ्रम नाशि बहु भवि बोधित कोने ॥ अभिनन्दन भगवान अभिरुचि कर व्रत दीने ॥३॥ सुमति सुमति वरदान दीजे तुम गुण गाऊं॥ . पद्म प्रभु पद पद्म उर घर शीश नवाऊं ॥४॥ नाथ सुपारस पास राखो शरण गहों जी॥ चंद्रप्रभु मुखचंद्र देखत बोध लहों जी ॥६॥ पुष्प दंत महाराज विगशित दंत तुम्हारे ॥ . शीतल शीतल बैन जग दुखहरण उचारे ॥६॥ श्रेयान्स भगवान श्रेय जगति को कर्ता। बास पूज्य पद बास दीजै त्रिभुवन भर्ता ॥७॥ विमल विमल पद. पाय विमल किये बहु प्राणी ॥ श्री अनंत जिनराज गुण अनंत के दानी ॥ ८॥ धर्मनाथ तुम धर्म तारण तरण जिनेश ।। . शांतिनाथ अप ताप शांति करो परमेश ॥ ९ ॥ कुंथुनाथ जिनराज कुंथु आदि जीपाले ॥ अरह प्रभू आर नाशि बहु भवि के अब टालें ॥१०॥ माल्ले नाथ क्षण माहि मोह मल्ल शय कीना॥ मुनि सुत्रत व्रत सार मुनिगण को प्रभु दीना ॥ १३॥ नाम प्रभुके पद पद्म नवत नशेअप भारी॥ नेम प्रभू तजि व्याह जाय वरी शिवनारी ॥ १२॥ पारस सुवर्ण रूप बह भविशणमें काने॥
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ज्ञानानन्द रत्नाकर। वार वीर विधि नाशि ज्ञानादिक गुण लीने ॥ १३॥ चार बीस जिन देव गुण अनंत के धारी॥ करों विविध पद सेव मेंटो व्यथा हमारी ॥१४॥ तुम सम जग में कौन ताका शरण गही जै॥ यासे. मांगों नाथ निज पद सेवा दीजै ॥१६॥
दोहा। नाथूराम जिन भक्त का, दूरकरो भव वास ॥ जब तक शिव अवसर नहीं, करो चरण का दास ॥१६॥
श्री जिन वाणि नजिन पहिचानी ते मूर्ख मिथ्या श्रद्धानी ॥ टेक ॥ नृप विक्रम से प्रथम ही मुनिवर एक अंग के रहे नज्ञानी॥जहां ऐसी विक्षिप्त भई तहां द्वादशांग की कौन कहानी तिसपर काल दोष से राजा जिनमत द्वैषी अति अ. भिमानी२॥प्रगट भये तिन जिनशासन के फूंके ग्रंथ डुवाये पानी सोलखी परिहार प्रमरचौहान विप्र आज्ञाजिन मानी जैन नष्ट कर आप भ्रष्ट हो पल भक्षी भये मदिरापानी॥३॥ भूपति के आधार धर्म मर्याद भये सोतो दुनिी । तब तहां शुद्ध दिगम्बर मुद्रा किमि निवहें जहां नीति नशानी॥४॥ बन तजि जिन गृहका आश्रयले रहे कुचित मुनिजहां. तहां ज्ञानी सिंह वृत्य तजि स्यारवृत्य सजि श्रुताभ्यास में निज शचि सानी ॥५॥तिन फिर श्रुत संस्कृत पराकृत मति अनुसार रचे सुन प्रानी॥ तथा क्षिन्नग्रंथोंकाआश्रय
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ज्ञानानन्द रत्नाकर। पाय क्वचित रचना तिन ठानी ॥ ६॥ रक्त श्वेत अम्बरी दोडिया तथा दिगम्बर आदि निशानी ॥ धरि आचार्य मुनि भट्टार्क यती आदि पद संज्ञा आनी ॥ ७ ॥ तहां दि गम्बर मुनि भी गदि बंध भये यह बात न छानी ॥ देव सिंह नंदी रु सेन ये चार संग प्रगटे अगवानी ॥ ८॥ दिन प्रति शिथिलाचार बढ़ावत गये करी रचना मन मानी॥ गृह वासी हो राखि परि ग्रह वर्ति अवार रहे हो मानी।। ९॥ तिन भेपिन के कथित ग्रंथ बहु पढ़त सुनत श्रावकनितआनी करत परीक्षारंचन तिन की बने फिरें गाढ़े श्रद्धानी॥१०॥ प्रगट असंभव कथन जिन्हों में तथा विपर्यय रीतिवखानी 'कथन परस्पर मेल नखाता तो भी शुद्ध कहत जिनवानी११ जिनवर उक्त वचन जोइन में पाये जात कचित अमलानी।। सो उपकारक भवोदधि तारक जयवंतेवासुखदानी।।१२॥ श्वेतरसव लखत एक से कर कपूर कपास अज्ञानी । जै नाभास आप को मानत जिन आज्ञा सम्यक हममानी३३ भवसागर के पार करन को धर्म पोत निश्चय हम जानीहिद तर छिंद्र रहित आदिक गुण तामेलखनाबुद्धिसयानी॥१४॥ जिस नवका में चढ़त चहत निज करो परीक्षा तस भ्रम भानी
औरन की निंदा करने में करो न आश बरन शिव रानी १५ त्यों ही
ग्रंथों के देख दूर कीजे पहिचानी॥ नाथूराम काम यह पहिला मतवारा पनछोड़ो ज्ञानी ॥१६॥
इति ज्ञानानन्द रत्नाकर समान ॥
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सूचना॥
पहिले की जोरमेरी लिखी पुस्तकें इन लावनी भजनोंकी उनमें जोरशब्द मुझे अब असुंदर जान पड़े वे यहां कोई पलट दिये हैं जिस से अब इन्हींके अनुसार बदल लेना चा हिये क्योकि हर किसीकार्यके प्रारंभमें जोक की बुद्धिहो तीहै वह कार्य करतेरभजजाती है तब उसीको अपना पहि ला काम कुछ कुटुंगा दीखने लगता है इससे शब्द बद लनमें कुछ बुराई न जानना ।।
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जाहिरात। . श्रीमद्भागवत संस्कृत तथा भाषा
टीका सहित। श्रीवेदव्यासप्रणीत श्रीमद्भागवत सवले कठिनह गौर इतकामाचार भरतखण्डमें सबसे अधिक है यह ग्रंथ क्लिष्टताके कारण सर्व साधारण लोगोंको टीका होनेपर भी अच्छी रीतिसे समझना कठिन था कोई २ 'स्थलोंमें बड़े २ पण्डितोंकी भी बुद्धि चक्करमें पड़जाती थी, इसलिये विना संस्कृत पढे सर्व साधारण पण्डित व स्वल्प विद्याजाननेवाले भगवद्भक्तोंके लाभार्थ संस्कृत मूल ३ अतिप्रिय ब्रजभापा टीकासहित जोकि हिन्दी भाषाओंमें शिरोमणि और माननीयह उसी भाषामें टीका बनवाकर प्रथमावृत्ती छपायाथा वह बहुतही जल्दी हाथोंहाथ. विकगई, फिर द्वितीयावृत्तिभी विकगई मन इस्ली तृतीयावृत्ति द्वितीयावृत्तिकी अपेक्षा अच्छी तरह शुद्ध करवाके मोटे अक्षरमें छपायाहै और भक्ति ज्ञानमार्गी ५००अतीव मनोहर दृष्टांत दिये हैं. कागज विलायती बढ़िया लगायाहै, माहात्म्य पठाध्यायी भाषाटीका सहित इस्के साथहीहै, प्रथमावृत्ति में मूल्य १५ रुपया था इस आवृत्तिमें केवल १२वाराही रुपया रक्खा है.
पद्मपुराण समग्र सातो खंड ५५००० ग्रंन्त्र छपातयार है मूल्य डाकव्यय सहित केवल १८ रु०मात्र अर्थात् २८ रु० भेजनेसे घर बैठे ग्रंथमिल जावेगा
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण । .. श्रीवाल्मीकीय रामायण२४०००ग्रंथका सरलसुबोध ब्रजभाषाटीकाबनवाकर छापक तयार किया है जिसने वीचमें मूल और नीचे अपर मावाटीका है. और एक वाल्मीकीय रामायणक्षा भाषावातिक छपा है, जिसमें
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जाहिरात। .
मूलके अनुसार यथावत् आषा करके मूल श्लोकोंक अंक भी लगादिये गयेहैं. रामायणकी कथामूल पढ़नेवालोंको पुराण बांचनेमें बहुत उपयोगी होगा-जिन महाशयोंको लेना होवे २१०० भेजदेनेसे भाषाटीकासहित इस पुस्तकको अपने स्थानपर पासकेंगे
और भाषावातिकको१०रु भेजनेसे पासकेंगे.महाशयो! इस अलभ्य लाभको शीघ्रता करिये.
रघुवंश भाषाटीकासहित। पद योजना तात्पय्यार्थ सरलार्य भाषानुवाद तथा गूदाशयों में टिप्पणी समन्वितकर अतीव स्वच्छता पूर्वक छापाहै ऐसा विद्यार्थियों के उपयोगी ग्रंथ आजतक अन्यत्र नहीं छपा मूल्य केवल ३॥ रु. है। ___ भक्तमाल संस्कृत अत्युत्तम चारों युगोंके भक्तोंकी कथा हैं छपा तयार है.
पुस्तक मिलनेका ठिकानाखेमराज श्रीकृष्णदास,
"श्रीवेङ्कटेश्वर" छापाखाना. . खेतवाड़ी न्यॉकरोड-मुम्बई,
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