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ज्ञानानन्द रत्नाकर |
दोहा । रंचन सुख संसार में, देखा चहुँ गति टोहि । यासे भव दुःख हरनको, भक्ति देहु निज मोहि ॥ नाथूराम जांचाजी महाराज । देहु सुख सांचा । भक्त लखि स्वयमेवा | भक्तलखि स्वयमेवा हो । भक्त लखि स्वयमेवा ॥ करें सुर नर सेवा ॥ ४ ॥
ऋषभ देव स्तुति लुप्त वर्णमाला में लावनी ॥ ३६ ॥ अजर अमरअव्ययपद दाता। आदीश्वर प्रभु जगतविख्याता इस पर भव सुखदाई | ईश्वर त्रिजगति के पारकरो जिनराई | (टेक)
उत्पति मरण जरा गद नाशों | ऊर्ध्वलोक शिखर दो बासो ||. ऋषभ ऋषी पद दाता । ऋआदिक देवीं सेवकरें तुममाता॥ एक चित्त जो तुम को ध्यावे । ऐश्वयित हो शिवपद पावे। .. ओर नजग आता | औरों को जगसे तारे अहो जगत्राता । अंग अंग मेरे हर्षायें । अह नाथ तुम दर्शन पाये । कर्मझड़े अधिकाई । ईश्वर त्रिजगतिके पारकरोजिनराई १ ॥ खल कर्मों मोहि बहुत भ्रमांया | गमन करत भव अंत न आया| घटी न भव थिति स्वामी | चरणाम्बुज थारे यासे गहे युग नामी | छत्र तीन थारे शिर सोहें । जतिजीव देखत मन मोहें || झलझलाट द्युति चामी। टूटें अववड़ीं होवे मुक ति आगामी ॥ ठहरे काल अनंततहांही। डोले ना इस जगकेमा हीं || ढांढस युत हर्षाई | ईश्वर त्रिजगति के पार करो जिन
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