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ज्ञानानन्द रत्नाकर। ७९
(टेक) द्वादश सभा, भई सुन प्रफुलित, ज्यों चातक लखि पानी ? जाके सुनत,मिटामिथ्या तम । निजविभूतिपहिचानीआ० जास प्रसाद, तरे अरु तरि हैं। तरत अभी भवि प्राणी ॥आ० नाथूराम जिन, भक्त सुनोनित । श्रवण धार श्रद्धाणी ॥आ०
तथा ॥३॥ क्यों जिन वाणी, श्रवण न दैरे । उरन सुहानी, श्रवण नदेरे
· (टेक). जाविन तीन,काल त्रिभुवन में। रक्षक कोईन प्राणी। श्रवण नर्कत्रियंचन, के दुःख भूले । फिर तहां की रुचि ठानी ॥श्र० जा विन जीव,भ्रमे त्रिभुवन में। निज पुर राह नजानी ॥श्र० नाथूराम जिन भक्त सुनैना। शुभ शिक्षा अभिमानी॥श्र०
तथा ॥४॥ क्यों अभिमानी, दुति भैरे । लखत न हानी । दुर्मति भैरे
(टेक) परनारी दुर्गति की दाता। सोलाके गृह आनी।दुति०१ प्राण प्रतिष्ठा, धन वल नाशकाकर सुयश की हानी।।दुमति
काल कूटभखि, जीवन चाहे। जड़ माति मूर्खप्राणी।।दुमति । नाथूराम क्यों चेतत नाहीं ।सुन सतगुरुकीवाणी ।। दुर्मतिः
उपदेशी भजन ॥१॥ धरम भाविहो, त्रिभुवन में सुखकार ॥ (टेक) । दुर्गति नाशक, स्वपर प्रकाशक, भासक ज्ञेयाकाराधर्म३॥