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५६ - ज्ञालानन्द रत्नाकर। कहें नाथूराम जिन भक्त समझ क्यों बनते अविचारी ॥ गुरु वार २ समझायें सब चेतो नर नारी॥६॥
जिनेन्द्र स्तुति लावनी ॥ ३९ ॥ शरण सुखदाईजी महाराजाधन्य प्रभुनाई तुम्हारीजिनदेवा। तुम्हारी जिन देवाहोोतुम्हारी जिन देवा करें।सुर नर सेवा।
(टेक) अधम उद्धारक जी महाराज । भवोदधि तारक प्रभु त्रिभुवन त्राता । प्रभु त्रिभुवन त्राता हो, प्रभुत्रिभुवन त्राता । नमो शिव जुखदाता|बहुत भव भटकाजी महाराज अधोमुख लटका कर्म वश उर माता । कर्मवश उरमाताहो कर्म वश उर माता । नहीं पाई साता॥
__दोहा। तीनों पन दुःख में गये, सुख ना लयो लगार । अब कुछ पुण्य उदय भयो । पाये त्रिभुवन तार ॥ गया दुःख साराजी महाराज । लया सुख भारा । लसे भवोदधि खेदा । लखे भवोदधि खेवा हो । लखे भवोदधि खेवा । करें सुर नर सेवा ॥१॥ नरक दुःख पायाजीमहाराजा जाय नहीं गाया तुम्हीं जानत ज्ञानी।तुम्ही जानत ज्ञानी हो । तुम्ही जानत ज्ञानी। नहीं तुमसे छानी ॥ नारकी मारेंजी महाराज। क्रोध अति धारें। डाल पेलेंघानी ॥ डाल पेलें वानी हो। डाल पेलें पानी। सहैं अतिदुःख प्राणी॥