________________
.. ज्ञानानन्द रत्नाकर। । रक्रमसे सुर नर नारकके बहुतेरे। भवधर मिथ्यावश कीने । पाप घनेरे।। जिय पहुँचा इतरनिगोद कियेबहु फेरे । तहाँ । एक श्वास में मरा अठारह बेरेचिर भ्रमे किनारा मिलान | भवसागरका । यह सफलको पर्याय पाय भवनरका॥२॥
यों लख चौरासी जिया योनि में भटका । बहुवार उदरमा। ताके आधालटका । अब सुगुरुं सीख सुन करो गुणी जन । खटका। यह है झूठा स्नेह जिस में तूअटकानिहीं कोई कि; सी का हितू गैर और घरका।यह सफल करो पर्याय पाय । भवनरका ॥३॥ इस नरतनुके खातिर सुरपतिसे तरसें।
तिसको तुम-पाके खोवत भोंदू करसे । क्षणभंगुर सुख. को प्रीति लगाते घरसे। तजके पुरुषार्थ वनते नारी नर
से॥ मत रत्न गमाओ नाथूराम निजकरका । यह सफलक .. रो पर्याय पाय भवनरका।।। ..
तथा दूसरी लावनी ॥ ५ ॥ प्रभु भजनकरो तज विषय भोगका खटका चिरकाल भजन बिन तू त्रिभुवनमें भटका। (टेक) तूनें चारों गति में किये अनंते फेरा । चौरासी लाख योनि में फिरावहु वेरा।। जहां गया तही तुझे काल बलीने घेरा । भगवान भक्ति विन कौन सहायक तेरा ॥ अव कर आतम कल्याण मोहतजघटका। चिरकाल भजन विनतू त्रिभुवनमे भटका।।। सुत तात मात दारादिक सब परखारे। तन धन यौवन सब विनाशीकहैं प्यारे ॥ मिथ्या इनसे स्नेह लगावत क्यारे ।