Book Title: Gyanand Ratnakar Part 02
Author(s): Nathuram Munshi
Publisher: Khemraj Krishnadas

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Page 64
________________ १८ ज्ञानानन्द रत्नाकर। झेला। ऐसी अतिशय अधिकारी। होवें जिन ग्रेह मझारी । तिनको देखें नर नारी । उर हर्ष होय अतिभारी॥ अब तिनका कुछ विस्तार, सुनो नर नार, हर्ष उर धार जो चाहो तरण । तुमहो त्रिभुवनके नाथ ॥१॥ श्री हर्दाका जिन धाम, पवित्र जो ठाम, तहां किसी भामने॥ अविनय करी, दर्शनको आई अपवित्र, देख चरित्र, सुरों विचित्र, विक्रिया धरी । श्री शांति मूर्ति जिन देव, तिससे स्वयमेव, कढ़ापसेव, विसीहीवरी। श्री जिनप्रतिमासेमहा भूमि जल बहा, जाय ना कहा. लगी ज्यों झरी॥ सुन भाई, यह देख असंभव अतिशय सब थर हरे॥ सुन भाई, नर नारी सब आश्चर्यवान हुए खरे ॥ सर्पट। अन्य मती भी यह चरित्र सुन दर्शन को आये। धन्य २ मुख से कहि नर त्रिय जिनवर गुण गाये ॥ बहु विधि स्तुति नर नारी । कीनी जिन ग्रेह मझारी॥ तब देव विक्रिया सारी । होगयी क्षमा तिही बारी॥ यह देख अशुभ विक्रिया, सर्व नरत्रिया, त्याग बदक्रिया, लगे अपहरण । तुमहो त्रिभुवन के नाथ ॥२॥ अब कहूं दूसरी बार की, अतिशय सार, सुनो नर नार,

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