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ज्ञानानन्द रत्नाकर ।..
(टेक) विषय विषवत जिन ने चीन्हे । तज काम भोग दीन्हे ॥ धर्म व्रत जपतप उरलीने । निज आतम रस भीने ॥ . मुनी मन रुचि घर जिन वाणीजी॥भये धन्य वेही प्राणी॥ मनुज भव लहि सुकृत कीना। विधि चार दान दीना॥ कर्म वसुको तप कर क्षीना। शिव पुर वासा लीना॥ । वरी जिनजाय मुक्ति रानी जी । भये धन्य वे ही प्राणी॥२॥ मिटा अब बिजगतिका फेरा । तिष्ठे अविचल डेरा। हरा दुःख जन्म मरन केरा। तिनको प्रणाम मेरा ॥ अष्टविधिकीजिनथितिभानीजी । भये धन्यवेही प्राणी॥३॥ कवे वह दिन ऐसा पाऊँ । वसु विधि तरुको ढाऊँ॥ . पास उस शिवत्रियके जाऊँ। ना फेर यहां आऊँ। नाथूराम भक्ति हिये आनीजी ! भये धन्य वेही प्राणी ॥४॥
दर्शनकी लावनी ॥२८॥ आज प्रभुका दर्शन पायाजी । आनंद उरमें छाया॥
(टेक) मिटा मिथ्या मय आँधियारा । भ्रम नाश भया सारा॥ हुआ उर सम्यक उजियारा । शिव मार्ग पदधारा ।। कान सीझेगा मनभायाजी । आनंद उरमें छाया ॥१॥ कल्पतरु मेरे गृह फूला । देखत. सब दुःख भूला ॥ भया चिंतामणि अनुकूला। मोकों सब सुख मूला ॥ हर्ष कुछ जाय नहीं गायाजी। आनंद उरमें छाया ॥२॥ स्वपर पहिचान भई सारी । पर परणति बमिडारी॥