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ज्ञानानन्दरत्नाकर।
दोहा। सहे सागरों दुःख बने, घर घर जन्म अनेक ॥ तहां कोई रक्षक नहीं, भुगते आतम एक ॥ शरण अब आया जी महाराज चरण शिरनाया । तुम्हींहो सुधिलेवा ॥ तुम्ही हो सुधिलेवा हो । तुझी हो सुधिलेवा।करें सुर नर सेवा ॥२॥ पशुदुः खसाराजी महाराज । सहा अति भारा । कौन मुख से गावे ॥ कौन मुख से गावे हो। कौन मुख से गावे । पराश्रय जो पावे ॥ जोते अरु लादें जी महाराज । मारें अरु बांधे मांस तक कट जावे मांसतक कटजावे हो । मांस तक कट जावे । तहांको वचावे ॥
- दोहा। तृण पानीभी पेट भर, मिलत समय पर नाहि ॥ वहत भार अति धूप में, मिलै न पल भर छाहिं ।।। सुना यश भारीजी महाराज । जगतहितकारी । दीजै शिव सुख मेवा । दीजै शिव सुख मेवाहो । दाजै शिव सुख मेवा करें सुर नर सेवा ॥३॥ देव पद थाने जी महाराजा वृथा सुख माने । नहीं तहां सुख होता। नहीं तहां सुख होताहो नहीं तहां सुख होता।। विषय वश दिन खोता। मरण थिति आवेनी महाराज । महा विललावे । अधिक दुःखकररोता। अधिक दुःखकर रोताहो। अधिक दुःखकररोता। खाय विधि वश गोता।