________________
ज्ञानानन्द रत्नाकर। ६९ द्वादश सभा भई अति प्रफुलित । सुनत श्रेय उपदेश । श्रेय रूप ध्वनि वन गर्जनसी । झेलत ताहि गणेश ॥२॥ जाति विरोध तजा सब जीवन । कीड़त नकुलरुशेश ॥ श्रेय हेत नित तुम गुण गावत। मुनि गण और सुरेश३॥ सत्य नाम श्रेयान्स तुम्हारा नाश करो भव केश ॥ नाथूराम जिन भक्त तुम्हारी । जाचत भक्त हमेश॥४॥
श्रीवास पूज्य स्तुति ॥ १२ ॥ तुम्हारे युगल चरण गुण राश ॥ (टेक) दीजै वास पूज्य युग पद तट । पूरे जनकी आस ॥ पूज्य वास प्रभु तुम पद तटका । नाशक वसुविधि त्रास तीर्थरूप तीरथके कर्ता दाता शिव पुर वास ॥ अजर अमर पद बहु भवि पाया। जो आये तुमपास॥२॥ गणधरादि मुनि तुम गुण गावें । प्रगट विश्व इतिहास ॥ जसवाल वृद्ध सब जानता अनुपम भानु प्रकाश ॥३॥ वसु विधि शत्रु प्रगट जो जगमें । जाले ध्यान तास ॥ नाथूराम जिन भक्त दासके । कीजै अब रिपु नाश ॥ ४॥
श्रीविमलनाथ स्तुति ॥ १३ ॥ प्रभुजी विमल विमल करो आज ॥ (टेक) अव मल मलिन जगति जन सबही । मोह राजके राज ॥ कलिमल मोह नाशिके सवही। विमल भये जिनराज ॥१॥ लोभ महामलसे अच्छादित । अदना अरु महाराज ॥ सो तुम विश्व लक्षि इम त्यागी । ज्यों कांचुलि अहिराजार