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ज्ञानानन्द रत्नाकर
मदन सदन तज जाय वसा वन । पुष्पनिमें भयवंत ॥ तुम पद आगे पुष्प चढ़त तव । या मिसि सेव करंत ॥१॥ कुंद पुष्पसे धवल प्रकाशित | अधिक तुम्हारे दंत || पुष्प धूप हिमसे कुम्हिलाते । तुम रद सदा दिपंत ॥ २ ॥ उज्ज्वल कीर्ति प्रकाशत थारी | श्वेत दशन भगवंत || पुष्पदंत यह नाम तुम्हारा । सार्थक त्रिभुवन कँत ॥ ३ ॥ अस्थि रहनयह महिमा पाईं। तुम आनन निवसंत ॥ नाथूराम जिन जो तुम सेवक । सो हो क्यों न महंत ॥ ४ ॥ श्री शीतल नाथ स्तुति ॥ १० ॥
निवारो शीतल भव आताप || (टेक)
शीतल मिष्टं वचन मृदु थारे । स्वतः स्वभावही आप ॥ खल कृत कटुक कठोरवचनका । नाशत तामस ताप ॥ १ ॥ जन्म न मरण जरा गढ़ दों का | फैला विश्व प्रताप || सो तुम अजर अमर पद पाके | नाशा सर्व कलाप ॥ २ ॥ वसु विधिने जग जीव सताये । करते नित्य विलाप ||
विधि ध्यान अग्रिमें दहितुम | उड़ादये कर भाप ||३|| है तुम सुयश प्रगट त्रिभुवनमें । संत करत गुण जाप || नाथूराम जिन भक्त होत क्षय | जन्म २ के पाप ॥ ४ ॥ श्रीश्रेयान्सनाथ स्तुति ॥ ११ ॥
जपों मैं श्री श्रेयान्स जिनेश || (टेक)
श्रेय रूप प्रभु श्रेय कर्त्ता । जग जनको परमेश ||
भवि जीवों हेतु तुम्हारा | श्रेय रूप आदेश ॥ १ ॥