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ज्ञानानन्द रत्नाकर। राग द्वेष मिथ्या तरु अव्रत । इत्यादिक अप साज ॥ सम्यक जलसे धोय बहाये । शुद्धातमके काज ॥३॥ निर्मल ज्ञान स्वरूप विराजत । जैसे तुम शिवराज ॥ नाथूराम को तैसा कीजे । विमल गरीब निवाज ॥४॥
श्रीअनंत नाथस्तुति ॥१४॥ प्रभुजी तुम गुणका नहीं अंत ॥ (टेक) . ज्यों आकाश महा विस्तीर्ण । अंगुलसे न नपंत॥ . अथवा मेव बूंदकी गणना। को मुखसे उचरंत ॥१॥ गण धरादिसे थकित भये जो चारि ज्ञान घर संत ॥ तो तुम गुणका अंतन प्रभुजी। सार्थक नाम अनंत ॥२॥ दर्शन ज्ञान और सुख वीर्य । ये अनंत भगवंत ॥ चारोही एकत्र तुम्हारे । राजत त्रिभुवन कंत ॥३॥ अनुपम गुणके कोष जिनेश्वर । त्रिभुवन माहि महंत ॥ नाथूराम जिन भक्त तुम्हारे । नित गुण गान करत ॥ ४॥
__श्रीधर्मनाथ स्तुति ॥ १५॥ उतारो धर्म पोत धर धर्म ॥ (टेक) उभय प्रकार धर्म मुनि श्रावक । जीव दया मय पर्म ॥ शिव मग भासक ज्ञान प्रकाशक । दीजे नाशक कर्म॥१॥ वसु विधिने जगजीव सताये । बतला पंथ अधर्म ॥ मोह महा मद-प्यास सबोंको । अधिक बढ़ाया भर्म ॥२॥ थकित भये मग पावत नाहीं। निज पुरका मुखसम ॥ चहुँ गति भार बहुत निशि वासर। तजि निजबल भये नर्म३