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__ज्ञानानन्द रत्नाकर। महाराज उग्रसेनकी दुलारी जी। जांची नेमीश्वर काज सु शीला रजमति प्यारी जी ॥ सज के वरात जूनागढ़को हरि आये मार्ग में हरिने बन पशु बहुत विराये। महाराज लखे दृग नमि कुमाराजी ॥ गहि ज्ञान चक्र कर वक्र मोह भट क्षणमें माराजी ॥१॥रा में पशु अति आरति युत विललावें। महाराज अधिक दीनता दिखावें जी। लखिकै दयालनेमीश्वर को हग नीर बहावेजी। प्रभ कही रक्षकोंसे
क्यों पशु चिरवाये । महाराज कही उन यदुपति आजी। , व्याहनको तिन संग नीच नृपति सो इनको खावें जी॥
सुन श्रवण नमि प्रक्षु धृग २ वचन उचारे । सब विषयभोग विषमिश्रित अशन विचार महाराज मुकुट अचला पर डाराजी । गहि ज्ञानचक्र कर वक्र मोह भट क्षण में माराजी॥२॥ क्रम से बारह भावना प्रभू ने भाई। महाराज तुरत लोकांतिक आये जी। नति कर नियोग निज साधि फेर निज पुरको धाये जी ॥ तब सुर पति सुरयुत आय महोत्सव कीना । महाराज प्रभू शिवका बैठायेजी। फिर सहस्रान बन माहिं प्रभूको सुरपति लायेजी॥ तहां भूषण बसन उतार लुंच कच कीने । सिद्धन को नवि प्रभु पंच महावत लीने महाराज परिअह दिविधि निवारा जी ॥ गहि ज्ञान चक्र कर वक्र मोह भट क्षण में मारा जी ॥३॥जन राज मतीने सुनी लई प्रभु दिक्षा । महाराज उदासी मनपर छाईजी। धृग जान त्रिया