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ज्ञानानन्द रत्नाकर। शठ सग्रंथ जो तपकरें घर बहु आडम्बर मानी ॥ ऋपि यती बनें वैरागी निज मुख से अज्ञानी ॥ धन लें तीर्थ के नाम बनें या परधन लेदानी ॥' . ये चिह्न कुगुरु के जानो जो भापे जिनवानी ॥ नित थोपें शिथिलाचार रहें रत काया से भारी ॥ गुरुवार २ समझाबैं सब चेतो नर नारी ॥ २ ॥ नित पो विषय कपाय और आहार सदोप करें। हिंसा मय धर्म बतायें सो जानो कुगुरु खरें ॥ जो निर्वाचक तप तपें दिगम्बर शांतिस्वरूपधरें। सो सुगुरु तिन्हें नित सेवो पर तारें आप तरें॥ अब सुनो कुधर्म सुधर्म रूप लखि पूजो धीधारी । गुरु वार २ समझायें सब चेतो नर नारी ॥३॥ पक्षपात युत राग द्वेष पोषक जामें उपदेश
शृंगार युद्ध क्रीडादि इनका स्वतन्त्र आदेश ॥ • ऐसा कुधर्म पहिचान तजो अवसान सजो मतलेश ॥
शुभ धर्म दयायुत पालो जो भाषा आप्त जिनेश । सम्यक रत्नत्रय रूप भूप त्रिभुवन पति हितकारी॥ गुरु वार २ समझायें सब चेतो नर नारी ॥४॥ यों परख सुदेव सुगुरु सुधर्म पीछे कीजै श्रद्धान ॥ बिन किये परीक्षा पूजे सो पीटें लोक अजान ॥ दमड़ी का वर्तन लेय उसे ठोके फिर २ दे कान॥ देवादि परखनापूजें जो जगमें रत्न महान ॥