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ज्ञानानन्द रत्नाकर ।
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तुम सा को जां भव थिति हानी जी । वर निज गुण का दानी ३ सुयश इतना प्रभु जी लीजै । वसु कर्म रहित कीजै ॥ नाथूराम को सुबोध दीजै । जासे भवः थिति छीजै ॥ जपें तुम नाम भव्य प्रानी जी । वर निज गुण के दानी ॥४॥ तथा लावनी ॥ २६ ॥
प्रभूजी तुम विभुवन त्राता जी । दीजै जन को साता ॥ (टेक) भ्रमों मैं भववनमें भारी । वहु भांति देह धारी ॥ कभी नर कभी भया नारी । क्या कहूं विपति सारी ॥ मिले अब तुम शिव सुखदाता जी । दीर्जे जन को साता १ ॥ सुयश तुम गणपति से गावें । शक्रादिक शिर नावें । चरण आश्रय जो जन आयें । सो बेशक शिव पावें ॥ तुम्ही हो हितू पिता भ्राता जी | दीजै जन को साता ॥ २ ॥ लखा मैं दर्शन सुखदाई । निधि आज अतुल पाई || खुशी जो मोचित पर छाई । सो जाय नहीं गाई || शीशम चरणों में नाता जी ॥ दीजै जन को साता ॥ ३ ॥ जपै जो नाम प्रभू थारा | पावे भवि सुख भारा || नशे दुःख जन्मादिक सारा । उतरे भव जल पारा ॥ नाथूराम तुम पद को ध्याता जी | दीजै जनको साता ॥ ४॥ भव्य स्तुतिं लावनी ॥ २७ ॥
सुगुरु शिक्षा जिन ने मानी जी । भये धन्य वे ही प्रानी ॥