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ज्ञानानन्द रत्नाकर।
क्षायक सम्यक भयो तुम्हारे उभय पक्ष क्षय कार ।। वंश भेदन कुदार.वर धारजी। पर निंदा में करत न शंका निशांकित गुणधार । प्रशंसा करते निज हर वारजी॥ धन्य प्रशंसा योग्य सरावग वर्षत मुखसे फूल जिन्होंको॥ सुकृत कांक्षा तजी सर्व एक वर्तति पर अपकार ।। श्रेष्ठ यह नि:कांछितगुणधारजी । निर्विचिकित्सागुणभारी पर सुयश न सकत सहार । देखपरविभवहोताहयक्षारजी।। पंडितोंमें सिरमौर कल्पतरु कलिके श्रेष्ठ वंमूला|जिन्होंके०२ परगुण ढकन लखन पर अवगुण यह गुण दृष्टि अमूढ़ ॥ कहत यही उपगृहण गुण गूढजी। ऐसीशिक्षा देतजायजी॥ भवसागरमें बूढ़ । यही गुण थिती करण अति रूढ़नी ॥ भ्रात पुत्रका चित फाइत यह वात्सल्य गुणथूलाजिन्होंके० आप अधिक आरंभ करत औरोंको शिक्षा देताप्रभावनाझं ग अधिक अप हेतजी । वर्णन कहांतक करों इसी विधि सर्व गुणोंके खेत । कौतुकी पर दुःख देने प्रेतजी॥ देख सु यशपर जलत सदा ज्यों भठियारेकी चूल ॥ जिन्होंके०॥४॥
चिटीकी करते दया ऊंटको सावित जात निगल ।। । दयाके भवन ऐसे निश्चलजी। वनस्पतीकी रक्षाको बहु
त्यागे मूल रु फल । ठगें पंचेंद्रिनको कर छलजी॥ गल्लादिकमें हतें अनंते निशिदिन बस स्थूल। जिन्होंके०॥ मिथ्या यशके लोभी इससे निज करत प्रशंसा नित्त ।