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ज्ञानानन्द रत्नाकर।
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दोहा।।
सो अब लोभी वनिक के, घर आया जिन धर्म ॥ यासे धन तृष्णा बढ़ी, क्यों न करें लघु कर्म॥ कुसंगति का यह फल पाया। जिन्हें खल कुगुरुन विहका याजी ॥७॥ . हा कलिकाल कराल जिसमें नाना विधि की विपरीति ॥ करी रचना भेपिन तज नीतिजी ।ता ही को बहुते पंडित शठ पुष्ट करें करप्रीति । न देखें जिन शासन की गतिजी।
दोहा। जिन वच तिन वच की कुधी । करें नहीं पहिचान ॥ हठ ग्राही हो पक्ष को, तानत कर अभिमान ॥ . न छोड़त कुल क्रम की माया । जिन्हें शठ कुगुरुनविहका याजी ॥ ८॥ यह विचार कुछ नहीं हृदय में क्या जिनधमें सरूपाागिरत क्यों हठकरके भव कूपजी ॥ रची उपल की नाव कुगुरु ने डोवन को चिद्रूप। येहीअवतार कलंकी . भूपजी ॥
. दोहा। वीतरागके धर्म की, मुख्य यही पहिचान ॥ लोभ असत वच अरु नहीं, जहां हृदय अभिमान ॥ ताहि ना लखें तिमर छाया। जिन्हें खल कुगुरन बिहकायाजी॥ ९॥ केवल ज्ञान छवी जिन की तिस पर पंचामृत धारादेत कहें उत्सव जन्म अवारजी। नाम्बरी कोजि