Book Title: Gyanand Ratnakar Part 02
Author(s): Nathuram Munshi
Publisher: Khemraj Krishnadas

View full book text
Previous | Next

Page 57
________________ ज्ञानानन्द रत्नाकर। ४१ दोहा।। सो अब लोभी वनिक के, घर आया जिन धर्म ॥ यासे धन तृष्णा बढ़ी, क्यों न करें लघु कर्म॥ कुसंगति का यह फल पाया। जिन्हें खल कुगुरुन विहका याजी ॥७॥ . हा कलिकाल कराल जिसमें नाना विधि की विपरीति ॥ करी रचना भेपिन तज नीतिजी ।ता ही को बहुते पंडित शठ पुष्ट करें करप्रीति । न देखें जिन शासन की गतिजी। दोहा। जिन वच तिन वच की कुधी । करें नहीं पहिचान ॥ हठ ग्राही हो पक्ष को, तानत कर अभिमान ॥ . न छोड़त कुल क्रम की माया । जिन्हें शठ कुगुरुनविहका याजी ॥ ८॥ यह विचार कुछ नहीं हृदय में क्या जिनधमें सरूपाागिरत क्यों हठकरके भव कूपजी ॥ रची उपल की नाव कुगुरु ने डोवन को चिद्रूप। येहीअवतार कलंकी . भूपजी ॥ . दोहा। वीतरागके धर्म की, मुख्य यही पहिचान ॥ लोभ असत वच अरु नहीं, जहां हृदय अभिमान ॥ ताहि ना लखें तिमर छाया। जिन्हें खल कुगुरन बिहकायाजी॥ ९॥ केवल ज्ञान छवी जिन की तिस पर पंचामृत धारादेत कहें उत्सव जन्म अवारजी। नाम्बरी कोजि

Loading...

Page Navigation
1 ... 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105