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ज्ञानानन्द रत्नाकर। -
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दोहा।
वीतराग छवि शुद्ध को , चंदनादि लपटाय। .. परिग्रह धारी गुरुन की, करत सेव अधिकाय ॥ कहें गुरुभाग्यनि से पाया जिन्हें खल कुगुरुन बिहकायाजी जो कुलका आचार उसी को मानत धर्म अजान ॥ नाम को करें पुण्य अरु दान जी ॥ लंघन को उपवास मानते विनातत्त्व श्रद्धाण । वृथा तन कष्ट सहें अज्ञानजी॥
दोहा। चर्वी को ले बत्तियां, जिन गृह में अधिकाय ॥ जालत अति उत्साह से , पोपत विषय अधाय ॥ हृदय में अहंकार छाया । जिन्हें खल कुगुरुन विहकायाजीर हरित फूल फल कर्पूरादिक जो हैं वस्तु सचित्त। करें जिन पूजा तिनसे नित्तजी [जैनी बन शठ पाप पंथमें अधिकलगातेचित्त।चाहते तिससे अपना हित्तनी ॥
दोहा। फूल माल जिन नाम की,करते शठनीलाम ।। नाम वरी को उमंगके, बड़बड़ बोलत दाम॥ अंधेरा विन विवेक छाया । जिन्हें खल कुगुरुन विहका याजी ३ वीच सभा में आप की पगड़ी लेय उतार । फेर वचे तिस को उच्चार जी । तहां कोई बहु दाम बढ़ा के लेय आप शिरधार । विना आज्ञा तुम्हरी उस वार जी॥