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४० ज्ञानानन्द रत्नाकर ।
दोहा। तिस पर कैसे करेंगे, आप तहां परणाम ॥ द्वैष रूप या हर्ष मय, सोचि कहो इस उम॥ न्याय का अवसर यह आया। जिन्हें सल कुशुरुन विहकाया जी ॥४॥ना देवाला कढ़ा प्रभू का जिसको बेचत माल॥ नहीं कुछहै जिनेंद्र कंगालजी । पुण्यकरो भंडार में सोधन देहु हाथसे डाल । पकड़ता कौन हाथ तिस काल जी॥
दोहा।
लीन लोक के नाथ की, करत प्रतिष्ठा हीन ॥ कौन अंथ आधार से, हमें बतावो चीन ॥ सुनन को मोमन ललचाया । जिन्हें खल कुशुरुन विहकायाजी॥६॥अभीतो बेचत माल फेरि बेचिहें सिंहासनछत्र॥ बुलाके बहु जैनी लिखि पत्रजी ॥ अभिमानी शठ धनी नाम को खरीदि करहैं तत्र । बहुत धन होवेगा एकत्रजी॥
दोहा। बड़ा फलाष्टक सभा में, तिन्हें सुने हैं टेर । तव क्षण में बहु द्रव्य का, हो जावेगा ढेर । भला जिगार नज़र आया॥
..जिन्हें खल कुगुरुन बिहकायाजी ॥६॥ निलोभी क्षत्री कुल में भये तीर्थकर अवतार ॥ तजा तिन सर्व परिग्रह भारजी। राज लक्ष्मी तृणसम तज ली वीतरागता धार । तजा सब संसारिक व्यवहारजी॥