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ज्ञानानन्द रत्नाकर। चापलोसियोंसे राखत हित्तनी । सत्य कहेसो लगे जहरसा जलै देखकर चित्त । बात सुन ताकी कोपे पित्तजी॥ ऐसी प्रकृति सज्जन करनिंदित डालो इसपरधूला जिन्होंके० एक विनय मैं करों आपसे आप विवेकी महा ॥ क्षमा कीजियो मैंने जो कहाजी । कविताईकी रीति झूठ दुईचन जाय नहीं सहा दिये विन ज्वाब जाय ना रहानी॥ मत मनमें लजित होके अपघात कीजियो भूल।जिन्होंके परनिंदा अरु आप बड़ाई करें सो हैं नर नीच ॥ बनें अति शुद्ध लगा मुख कीचजी । वेशर्मी से नहीं लजाते चार जनों के बीच । पक्ष अपनी की करते खींचणी॥ नाथूराम जिन भक्त करें बहु कहांतक वर्णनथूला|जिन्होंके.
जिनेंद्र स्तुति लावनी ॥ २५ ॥ नदेखा प्रभु तुमसा सानीजी । वर निज गुण का दानी ॥
(टेक) स्वार्थी देव नजर आते । ना शिव मग बतलाते ॥ आप ही जो गोते खाते । तिन से को सुख पाते। नहीं तुमसा केवल ज्ञानीजी । वर निज गुण का दानी ॥ १॥ निकट संसार मेरे आया। जो तुम दर्शन पाया। लखत मुख उर आनंद छाया ।सो जाय नहीं गाया। दरश थारा शिव सुख खानी जीवर निज गुणका दानी २ बहुत प्राणी तुमने तारे। जो थे दुःखिया भारे॥ गहे मैं चरण कमल थारे । सब हरो दुःख म्हारे॥