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ज्ञानानन्द रत्नाकर।
(टेक) आर्य क्षेत्र रु श्रावक कुल लहि वृथा न डिंहकाना चहिये। जप तप संयम नेम विन नहीं काल जाना चाहिये। भ्रमे दीर्ष संसार न पाया पार चिंत लाना चहिये। पुरुषार्थ को करो क्यों कायर बन जाना चाहिये। बार २ फिर मिले न अवसर यह शिक्षा माना चहिये ॥ जब तक शिव नातव तलक नित जिन गुण गाना चहिये। आप करो परणाम शुद्ध औरों के करवाना चहिये। सदा धर्म में रहो लवलीन न निसराना चहिये । धर्म समान मित्र ना जग में यह उर में लाना चहिये।
अब सम रिपु ना ताहि निज अंग न परसाना चाहिये। • परदुःख देख हँसो मत मन में क्षमा भाव ठगना चाहिये।
जब तक शिव ना तब तलक नित जिनगुण गाना चहिये २ साधर्मी लखि हर्ष करो उर मलिन भाव हाना चहिये । अंगहीनको देखकर भूल न खिजवाना चहिये। निज परकी पहिचान करो इसमें होना दाना चहिये। इसी ज्ञान बिन भ्रमे चिर अव निज पहिचाना चाहिये। दुःखी दरिद्री को दुःख देकर कभी न कल्पाना चाहिये। जब तक शिव ना तब तलकनित जिन गुण गाना चाहिये। गुण वृद्धों की विनय करो नित मान विटप दाना चहिये। पर विभूति को देख मन कभी न ललचाना चाहिये। मिथ्यावचन कहो मत छल से सुकृत का खाना चहिये।