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८४ ज्ञानानन्द रत्नाकर। नर भव रत्न द्वीप में बसके अब क्यों रहो भिखारी॥ नाथूराम जिन भक्त शक्ति सम होउ नेम व्रत धारी ॥४॥
तथा॥४॥ तनु क्षणभंगुर मल धाम है मति राचो धी धारी ॥(टेक) सप्तधातु उपधातु व्याधि से पूरण पिंड पिटारी ॥ नव मलं छिद्र निरंतर श्रवते देखत घिन हो भारी॥१॥ तात शुक्र जननी रजसे यह प्रगट भया अप क्यारी ॥ अप गुण कूप भूप कुविसन का दुर्मति याको प्यारी ॥२॥ अस्थि मांस का पिंड त्वचासे आच्छादित भ्रमकारी॥ शृंगारादि वसन भूषण लखि मोहें शठ नर नारी ॥३॥ नाथूराम जिन भक्त शक्ति सम याहि पाय सुविचारी॥ जप तप नेम करो निशि बासर मानो विनय हमारी॥४॥
तथा॥५॥ मैं भव वन में चिरकाल से दुःख पाया हो भारी ॥ (टेक) नित्य निगोद बसा अनादि से थावर काया धारी॥ एक श्वास में जन्मन मरना किया अठारह बारी॥१॥ क्रम क्रम तनु विकल त्रय धरके भ्रमो पशू गति सारी॥ पंच प्रकार सहा नारक दुःख वश बहु नर्क मझारी॥२॥ सुर गति में सम्यक्त विना नहीं तजी लेश्या कारी॥ मनुष योनि मलेच्छ शुद्ध हो भयो अभक्ष्याहारी ॥३॥ शुभ संयोग लहा श्रावक कुल अव यह विनय हमारी॥ नाथूराम को दीजै प्रभुजी निज सेवा सुखकारी॥४॥