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ज्ञानानन्द रत्नाकर। २० सहस्त्र नयन ले बहिन को, छिपा विपिनमें धाय ॥ पूरणधन ने कन्या की खातिर नगरी सब ढुंदवाई॥ तिसका वर्णन सुनो जो श्रवणों को आनंददाई ॥१॥ सगर चक्रपति को इक दिन माया मय हय ने हरा सही॥ धरा विपिन में वहीं लखि उत्पल मतीभात से कही। चक्री के तट सहस्त्र नयन ने जाय बहिन परनाय वही॥ अति आदर से युगल श्रेणीकी पाई आप मही॥
. . चौपाई। सहस्र नयन चक्री बल पाके । पूरण धन मारा रण धाके। भगा मेघ वाहन घबराके । समव शरण में पहुँचा जाके ॥
- दोहा॥ अजित नाथको बंदि के बैठा समता ठान। सहस्त्र नयन के भट तहां, देख गये निज थान ॥ तिन के मुख सुन सहस्त्र नयन भी गया जहां जित जिनराई तिसका वर्णन सुनो जो श्रवणों को आनंददाई ॥२॥ समोशरण में जाय भवान्तर पूछि सभी निवैर ठये ॥ यह सुन राक्षस इंद्र प्रमुदित मन भीम सुभीम भये॥ कहा मेघवाहन से धन्य तू अब तेरे सब दुःख गये ॥ श्री जिन वर के चरण तल जो तेरे वसु अंग नये ॥
चौपाई। हम प्रसन्न तो पर खगराय । सुनो वचन मेरे मन लाय ।। राक्षस द्वीप बसो तुम जाया वह भू तुमको अति सुखदाया