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ज्ञानानन्द रत्नाकर मात तात सुत भात मित्र त्रिय दासी दास अर्द्धगी भाम॥ माने मोह वश अपने इनको बो बमूल शठ चाहे आम ॥ मेरी मेरी करता निशि दिन नहीं लहे क्षण भर विश्राम ॥ मोत फिरे शिर पर निशि वासर नहीं करै क्षण एकविराम। महा मूढ प्रभु नाम न जपता जिस्से लहे अविचल आराम॥ मंगलकरन हरन अप आरति घाताविधिदाताशिवधाम॥३॥ मिथ्या मार्ग चले आप शठ कर्मों को देता इलजाम ॥ मूल तत्त्व श्रद्धाण न करता इस्से अधोगति करे मुकाम ॥ मानो सुधी यह सीख सुगुरु की स्वपर भेद में रहो न खाम मिले न फिर पर्याय मनुज की करो शुद्ध यासे परणाम ॥ भद आठो को टार धार उर नाम प्रभूका नाथूराम ॥ मंगलकरनहरन अप आरति पाता विधि दाताशिवधाम॥
जिन प्रतिमा की स्तुति लावनी ॥ २०॥ ध्यानारूढ़ वीतरागी छवि परम दिगम्बर श्री जिनेश ॥ महापवित्र मूर्ति श्रीजिनकी त्रिभुवनपति पूजते हमेश।
(टेक) जैसे राग कामी को बढ़ावे हाव भाव युत त्रिय का चित्र ॥ भय विन उपजे देखत मूर्ति सिंह मलेच्छ महा अपवित्र ॥ तैसे भाव वैराग बढ़ावे परम दिगम्बर मूर्ति विचित्र ॥ क्षमाशील संतोष होंय दृढ़ देखत श्रीजिन मूर्ति पवित्र ॥ कृत्या कृत्यम मूर्ति पूज्य सब नहीं परिग्रह जिनके लेश ॥ महापवित्र मूर्ति श्रीजिनकी त्रिभुवनपति पूजते हमेश ॥१॥