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ज्ञानानन्दरत्नाकर। ३१ कार्य सिद्धि कीजै मम ईश । युगल चरण में नाऊं शीश ॥ .
दोहा। हाथ जोड़ विनती करों, नाथ गरीब निवाज़ ॥ लाज रहै जो दास की, कोज वही इलाज ॥ नाथूराम की अर्ज यही करदो वसु अरिका नाश प्रभू ॥ दीजै मुक्तिरसाल काटि विधिजाल रखोनिज पास प्रभू॥॥
जिन भजन का उपदेश म की दुअंग लावनी ॥ १९ ॥ मन वच कायजपो निशि वासर चौवीसोजिन देव का नाम।। मंगल करन हरन अब आरति पाता विधि दाता शिवधाम।।
(टेक) मोह महाभट जगतमें नट खट ताके पड़ावश आतम राम।। मग्न विषय सुख में निशि वासर नहीं खबर निज आठो जाम मूढ़ कुमति से प्रीति लगाके मित्र बनाये क्रोध रु काम ॥ महत्व अपना भूल गया शठ जानारूप निज हाहरु चाम।। महद्भक्ति करेना जड़मति जासे मिले अनुपम शिव भाम॥ मंगलकरन हरन अघ आरति घाताविधिदाता शिवधाम ॥ : मदन के वश रस विषयको चाहे दोहे सुगुण निजं मूढ़ तमाम माने ना शिक्षा गुरुंजगकी दुर्गात को करता व्यायाम ॥ मद्यमांसको सप्रेम सेवे जैसे दरिद्री शीत में घाम ।। माया लीन ठगे दीनों को फिर कुविसन में खोवे दाम ॥ मतिमानों की करे न संगति जाते वसे अविनाशी ठाम ॥ मंगल करन हरन अव आरति घाता विधि दाता शिव धामर