________________
ज्ञानानन्द रत्नाकर। १७ चारों गति के चारि वर से न अभीतक पार भया॥२॥ . दश पौ ग्यारह के विन जाने गुण स्थान ग्यारह चढ़के ॥ फिर गिरा अज्ञानी मोह वश सहे दुःख नाना बढ़के ॥ दश दोवा कच्चे बारह विन जाने मोह भटसे अड़के ॥ बारम गुण थाने चढ़ा ना निज विभूति पाता लड़के ॥ पौ बारह के भेद विना ना तेरह विधि चारित्र लया। चारों गति के चार घर से न अभीतक पार भया ॥३॥ चौदह जीव समास चतुर्दश मार्गना नहीं पहिचानी॥ इस कारण चौदह चढ़ाना गुणस्थान भ्रम बुधिठानी॥ पंद्रह योग प्रमाद न जाने तिनवश आश्रव रति मानी ॥ सोलह कारण के विना भायें न कर्म की थिति हानी ॥ सत्रह नेम विना जाने नाह पाली किंचित जीवदया॥ चारों गति के चारि घर से न अभी तक पार भया॥४॥ दोष अठारह रहित देव अरिहंत नहीं हिरदे आने ॥ इस हेतु अठारह दोष लगरहे नहीं अब तक हाने । सम्यक रत्नत्रय पांसे अब सुगुरु दया से पहिचाने॥ आठो विधि गोटें नाशि गुण आठ वरों धरके ध्याने ॥ नाथूराम जिन भक्त पार होने को करो उद्योग नया॥ चारों गति के चारि घर से न अभी तक पार भया॥५॥
उपदेशी लावनी ॥ १४॥ जग मणि नर भव पाय सयाने निज स्वरूपध्यानाचहिये। जब तक शिव ना तवतलक नित जिन गुण गाना चहिये।