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प्रथम खण्ड/ प्रथम पुस्तक
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तीसरा अवान्तर अधिकार गुणत्व 'निरूपण १०३ से १६४ तक
अथ च गुणत्वं किमहो सूक्तः केनापि जन्मिना सूरिः ।
प्रोचे सोटोहरणं लक्षितमिव लक्षणं गुणानां हि ॥ १०३ ॥
अर्थ- गुणपना क्या पदार्थ है? यह प्रश्न किसी पुरुष ने आचार्य से पूछा तब आचार्य उदाहरण सहित गुणों का सुलक्षित लक्षण कहने लगे।
द्रव्याश्रया गुणाः स्युर्विशेषमात्रास्तु निर्विशेषाश्च । करतलगतं यदेतैर्व्यक्तमिवालक्ष्यते
वस्तु 11 १०४ ॥
अर्थ- द्रव्य के आश्रय रहने वाले, विशेष रहित जो विशेष हैं वे ही गुण कहलाते हैं। उन्हीं गुणों के द्वारा हाथ में रक्खे हुए पदार्थ की तरह वस्तु स्पष्ट प्रतीत होती हैं।
प्रमाण - द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः' इति मोक्षशास्त्रे ।
अयमथ विदितार्थः समप्रदेशाः समं विशेषा ये ।
ते ज्ञानेन विभक्ताः क्रमतः श्रेणीकृता गुणा ज्ञेयाः ॥ १०५ ॥
अर्थ-गुण-द्रव्य के आश्रय रहते हैं इसका खुलासा यह है कि एक गुण के जो प्रदेश हैं, वही प्रदेश सभी गुणों के हैं इसलिये सभी गुणों के समान प्रदेश हैं और वे इकट्ठे रहते हैं। उन प्रदेशों में रहनेवाले गुणों का जब बुद्धिपूर्वक विभाग किया जाता है तब श्रेणीवार क्रम से अनन्त गुण प्रतीत होते हैं (अर्थात् बुद्धि से विभाग करने पर द्रव्य के सभी प्रदेश गुणरूप ही दीखते हैं। गुणों के अतिरिक्त स्वतन्त्र आधार रूप प्रदेश कोई भिन्न पदार्थ नहीं प्रतीत होता है )।
दृष्टान्तः शुल्लाद्या यथा हि समतन्तवः समं सन्ति ।
बुध्धा विभज्यमानाः क्रमतः श्रेणीकृता गुणा ज्ञेयाः ॥ १०६ ॥
अर्थ- दृष्टान्त-जैसे समान तन्तुवाले सभी शुक्लादिक गुण इकट्ठे रहते हैं उन शुक्लादि गुणों का बुद्धि से विभाग किया जाय तो क्रम से श्रेणीवार अनन्त गुण ही प्रतीत होंगे।
नित्यानित्यविचारस्तेषामिह विद्यते ततः प्रायः ।
विप्रतिपत्तौ सत्यां विवदन्ते वादिनो यतो बहवः ॥ १०७ ॥
अर्थ- गुणों के विषय में बहुत से वादियों का विवाद होता है। कोई गुणों को सर्वथा नित्य बतलाते हैं और कोई सर्वथा अनित्य बतलाते हैं। इसलिये आवश्यक प्रतीत होता है कि गुणों के विषय में नित्यता और अनित्यता का विचार किया जाय ।
जैनानां मतमेतन्नित्यानित्यात्मकं
यथा द्रव्यम् ।
ज्ञेयास्तथा गुणा अपि नित्यानित्यात्मकास्तदेकत्वात् ॥ १०८ ॥
अर्थ- जैनियों का तो ऐसा सिद्धान्त है कि जिस प्रकार द्रव्य कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य है उसी प्रकार गुण भी कथंचित् नित्य कथंचित् अनित्य है क्योंकि वे द्रव्य से एक रूप हैं (क्योंकि गुणों का समुदाय ही तो द्रव्य है । द्रव्य से सर्वथा भिन्न गुण नहीं है )।
तत्रोदाहरणमिदं तद्भावाव्ययाद्गुणा नित्याः ।
तदभिज्ञानात्सिद्धं तल्लक्षणमिह यथा तदेवेदम् ॥ १०९ ॥
अर्थ-नित्य का यह लक्षण है कि जिसके स्व-भाव का नाश न हो। यह लक्षण गुणों में पाया जाता है इसलिये गुण नित्य हैं। गुणों के स्व-भाव का नाश नहीं होता है यह गुणों का लक्षण "यह वही है " ऐसे एकत्व प्रत्यभिज्ञान द्वारा सिद्ध होता है ( अर्थात् गुणों में यह वही गुण है, ऐसी प्रतीति होती है और यही प्रतीति उनमें नित्यता को सिद्ध करती है )।