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(२) जैनियोंको, भंद्रबाहुकी योग्यता, महत्ता, और सर्वमान्यता आदिके विषयमें इससे आधिक परिचय देनेकी जरूरत नहीं है । वे भद्रबाहुके द्वारा संपूर्ण तत्त्वोंकी प्ररूपणाका उसी प्रकार अविकल रूपसे होते रहना मानते हैं जिस प्रकार कि वह वीर भगवानकी दिव्यध्वनि द्वारा होती रही थी
और इस दृष्टिसे भद्रबाहु वीर भगवानके तुल्य ही माने और पूजे जाते हैं। इससे पाठक समझ सकते हैं कि जैनसमाजमें भद्रबाहुका आसन कितना अधिक ऊँचा है। ऐसे महान विद्वान और प्रतिभाशाली आचार्यका बनाया हुआ यदि कोई ग्रंथ उपलब्ध हो जाय तो वह निःसन्देह बड़े ही आदर
और सत्कारकी दृष्टिसे देखे जाने योग्य है और उसे जैनियोंका बहुत बड़ा सौभाग्य समझना चाहिए । अस्तु; आज इस लेख द्वारा जिस ग्रंथकी पक्षिाका प्रारंभ किया जाता है उनके नामके साथ ‘भद्रबाहु का पवित्र नाम लगा हुआ है। कहा जाता है कि यह ग्रंथ भद्रबाहु श्रुतकेवलीका बनाया हुआ है।
ग्रन्थ-प्राप्ति। :. जिस समय सबसे पहले मुझे इस ग्रंथके शुभ नामका परिचय मिला
और जिस समय (सन् १९०५ में ) पंडित गोपालदासजीने इसके दायभाग' प्रकरणको अपने 'जैनमित्र ' पत्रमें प्रकाशित किया उस समय मुझे इस ग्रंथके देखनेकी बहुत उत्कंठा हुई। परन्तु ग्रंथ न मिलनेके कारण मेरी वह इच्छा उस समय पूरी न हो सकी। साथ ही, उस वक्त मुझे यह भी मालूम हुआ कि अभीतक यह ग्रंथ किसी भंडारसे पूरा नहीं मिला । महासभाके सरस्वतीभंडारमें भी इसकी अधूरी ही प्रति है। इसके बाद चार पाँच वर्ष हुए जब ऐलक पन्नालालजीके द्वारा झालरापाटनके भंडारसे इस ग्रंथकी यह प्रति निकाली गई और ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीके द्वारा, जैनमित्रमें, इस पूरे ग्रंथके मिल जानकी घोषणा की गई और इसके अध्यायोंकी विषय-सूचीका विवरण देते हुए सर्व साधारण पर