Book Title: Gaudavaho
Author(s): Vakpatiraj, Narhari Govind Suru, P L Vaidya, A N Upadhye, H C Bhayani
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 248
________________ सुजनदुर्जनभेदः अविवेअ-संकिणोच्चेअ णिग्गुणा पर-गुणे पसंसंति।। लद्ध-गुणा उण पहुणो बाढं वामा पर-गुणेसु ॥ ८८० ॥ सब्बोच्चिअ स-गुणुक्करिस-लालसो वहइ मच्छरुच्छाहं । ते पिसुणा जे ण सहति णिग्गुणा पर-गुणुग्गारे ॥ ८८१॥ सुअणतणेण घेप्पइ थोएणंचिअ परो सुचरिएण। दुक्ख-परिओसिअव्वो अप्पाणोच्चेअ लोअस्स ॥ ८८२ ॥ मोत्तुं गुणावलेवो तीरइ कह णु विणय-ट्टिएहिं पि। मुक्कम्मि जम्मि सोच्चिअ विउणअरं फुरइ हिअअम्मि ॥ ८८३॥ मिजंता हिअएण किं पि चिंतेति जइ ण जाणामि । किरियासु पुण पअति सज्जणा णावरद्धे वि ॥ ८८४ ॥ महिमं दोसाण गुणा दोसा वि हु देति गुण-णिहाअस्स। दोसाण जे गुणा ते गुणाण जइ ता णमो ताण ।। ८८५॥ . सुअणाअंति खला वि हु सुअणा वि खलत्तणं व दावेति । एसोच्चिअ सीमंतो गुणाणं दूरं फुरंताण ॥ ८८६॥ अविवेकशकिन एव निर्गुणाः परगुणान् प्रशंसन्ति। लब्धगुणाः पुनः प्रभवी बाढं वामाः परगुणेषु ।। ८८०॥ सर्व एव स्वगुणोत्कर्षलालसो वहति मत्सरोत्साहम् । ते पिशुना ये न सहन्ते निर्गुणाः परगुणोद्गारान ॥ ८८१ ॥ सुजनत्वेन गृह्यते स्तोकेनैव परः सुचरितेन। दुःखपरितोषयितव्य आत्मैव लोकस्य ॥ ८८२॥ मोकुं गुणावलेपः शक्यते कथं नु विनयस्थितैरपि । मुक्ते यस्मिन् स एव द्विगुणतरं स्फुरति हृदये ॥ ८८३॥ यमाना हृदयेन किमपि चिन्तयन्ति यदि न जानामि । क्रियासु पुनः प्रवर्तन्ते सज्जना नापराद्धेऽपि ॥ ८८४॥ महिमानं दोषाणां गुणा दोषा अपि खलु ददति गुणनिघातस्य । दोषाणां ये गुणास्ते गुणानां यदि तद् नमस्तेषाम् ॥ ८८५ ॥ सुजनायन्ते खला अपि खलु सुजना अपि खलत्वमिव दर्शयन्ति । एष एव सीमन्तो गुणानां दूरं स्फुरताम् ॥ ८८६॥ ८८०. संकिअच्चेअ. ८८२. अत्ताणो for अप्पाणो. ८८३. हिययस्स for हिययम्मि. ८८४. किरियासु तु पयत्तंति. ८८६. Also read as सुयणा वि खलायंति व खला वि सुयणतणं व दाति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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