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धर्म - वीर सुदर्शन
अमल चन्द्र हो नाथ ! आप,
पुष्प मनोहर आप और मैं,
तुम
मैं स्वच्छ चन्द्रिका प्यारी हूँ ।
तुम हो
प्रिय सुगन्ध सुख - कारी हूँ ॥
हो सघन जलद, आपकी,
मैं अन्तर जल
पुरुष और मैं हरदम, साथ लगी
तन
छोड़ दुःख में मुझे अकेली,
तोड़ोगे क्या स्नेह - शृंखला, प्रेमी व्रत न
नाथ, द्वैत यह सहन हो सकेगा, नहीं कदाचित भी पति - पत्नी की एक ही गति है, अलग रहूँ कैसे
राजा ने यह कौन जन्म का, हम से बदला
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हाय अचानक शूली का, जो हुक्म
मेरे पति व्यभिचारी हों,
-
आप स्वर्ग में जाओगे ?
निभाओगे ?
सदाचार में उन जैसा दृढ़,
-
धारा हूँ ।
छाया हूँ ॥
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मुझसे ।
तुमसे ॥
यह हो ही कैसे सकता है ?
लीना है ।
भयंकर दीना है ॥
और कौन हो सकता है ?
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