Book Title: Dharmavir Sudarshan
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 154
________________ धर्म-वीर सुदर्शन कैसे-कैसे घोर भयंकर, दुष्कृत मुझसे करवाए । सच्चरित्र श्रेष्ठी जैसे भी, सज्जन शूली चढ़वाए ॥ प्राण-दंड से न्यून दंड मैं, कभी न अभया को देता । दयामूर्ति यदि सेठ क्षमा का, वचन न मेरे से लेता ॥ संसारी जीवन चंचल है. . बनते . और बिगड़ते हैं। धर्मी, पापी बनते हैं, फिर पापी, धर्मी बनते हैं । श्रेष्ठी का आदर्श देख कर, अभया अब तो सँभलेगी। लज्जित होकर स्वयं स्वयं पर, स्वयं कुपथ सब तज देगी ॥ श्रेष्ठी जी को वचन दिया है, अतः न मर्म दुखाऊँगा । द्वेष भाव अणु भी न रखुंगा, सादर स्नेह निभाऊँगा ॥" करते-करते यों विचार, निज राजमहल में नृप आए । देखा दुःखद दृश्य, दया के, भाव हृदय में भर आए । “काल-चक्र ! तेरी भी जग में, क्या ही अद्भुत महिमा है । १३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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