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धर्म-वीर सुदर्शन वन्दनीय हैं पुरुषरत्न वे,
करते हैं जो इन्द्रिय - जय । नष्ट समूल वासना-विष कर,
पाते मुक्ति अमृत निर्भय ॥
अपनाया है ।
पूर्ण त्याग का मार्ग, सुदर्शन
मुनि ने भी पाया है लोकोत्तम जिन-पद,
सफल नृजन्म
बनाया
है
॥
लाया है।
वेश्या को प्रतिबोध दान कर,
वन में आसन आत्म-चिन्तना करते-करते,
यह विचार मन
आया है ॥
"अरे सुदर्शन ! अब भी तुझ में,
बहुत बड़ी दुर्बलता है । जहाँ-कहीं भी तू जाता है,
यह प्रपंच क्यों चलता है ? राग-द्वेष की निंद्य भावना,
तुझे देख क्यों उठती हैं ? व्यर्थ विचारी महिलाएँ क्यों,
काम - शल्य से कुढ़ती हैं ?
बाहर जो होता है उसका,
बीज हृदय में ही होता । प्रायः निज मन ही प्रतिबिम्बित,
___ औरों के मन में होता ॥
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