Book Title: Dharmavir Sudarshan
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 179
________________ - पूर्णता "अखिल विश्व में एक मात्र, __ निज कर्मों की ही प्रभुता है । कर्म-पाश में फँसा विवश, जग पाता गुरुता लघुता है । प्रति-आत्मा में बीज छुपे हैं, निष्कलंक भगवत्ता के । कर्म-उपाधि नष्ट हो, तब हों, दर्शन निजी महत्ता के । आप और मैं सभी एक हैं, मात्र उपाधि मिटा दीजे । भोग-मार्ग तज क्रमशः निज को, श्रीभगवान बना लीजे ॥ गुण पूजा का यह उत्सव है, अतः सुगुण अपना लीजे । 'परगुण-महिमा निज-गुण प्रगटाने, में है' न भुला दीजे ॥" वाणी सुनकर हृदय व्यंतरी, का भी सहसा पलट गया । दुर्भावों का क्षेत्र, बना अब, सद्भावों का क्षेत्र नया ॥ हाथ जोड़कर श्रीजिन प्रभु से, क्षमा प्रार्थना की सादर । पश्चात्ताप किया कलि-मल का, आत्म - भावना - विमलंकर । क्षमा-सिन्धु श्री जिन ने भी, परिपूर्ण क्षमा का दान किया । - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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