Book Title: Dharmavir Sudarshan
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 177
________________ पूर्णता "तपोमूर्ति ऋषिराज ! तुम्हारा, धन्य - धन्य तप धन्य अमल । पूर्ण-पुण्य के योग इसी, __भव में ही द्रुत हुआ सफल ।। स्वर्ग-लोक से स्वयं इन्द्र ने, मुझको यहाँ पठाई है । तप-द्वारा जो सुख चाहा था, दासी देने आई है । ithio . आँख खोल कर ज़रा देखिए, देवी कैसी होती हैं ? पूर्ण-तपोधन संत जनों को, __सुखप्रद कैसी होती ध्यान-मग्न मुनि के मानस में, ___ आया अणु भी क्षोभ नहीं । प्रलयानिल से मेरु महीधर, हिल सकता है भला कहीं ॥ = - कालरात्रि-सम क्रुद्ध पिशाची, का अभया ने रूप धरा । काँप उठे वन, गिरि, पृथ्वीतल, प्रलयकाल - सा दृश्य करा ॥ नग्न खङ्ग युग कर में लेकर, बड़े जोर से धमकाया । भीषण माया-जाल बिछाकर, - पूर्ण मृत्यु - भय दिखलाया ॥ - १५४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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