Book Title: Dharmavir Sudarshan
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 186
________________ धर्म-वीर सुदर्शन मात्र निमित्त समझते खुद को, भाग्य उसी का बतलाते ॥ (११ वही श्रेष्ठ है मूक भलाई, जिसमें गर्व नहीं होता। अहंकार से मलिन धर्म तो बीज पाप का ही बोता॥ (१२) सज्जन तो होते हैं चन्दन महक न निज कम कर सकते । अंग विभेदक खर कुठार का मुख सुगंध से भर सकते ॥ (१३) एक देव है मानव, जिसके मिलने से सब प्रमुदित हों। एक रुद्र दानव है मानव, देख जिसे सब दुःखित हों ॥ (१४) सज्जन दुर्जन दोनों जग में भिन्न प्रकृति के हैं स्वामी । एक जलज है कमल, एक है जौंक रक्त का अनुगामी ॥ (१५) कदाग्रहों में पड़ मानव का चित्त विकल हो जाता है । जान बुझकर भी सत्पथ को कभी न अपना पाता है ॥ (१६) दुराग्रही जन सदा-सर्वथा अपने ही हठ पर अड़ते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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