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धर्म-वीर सुदर्शन दुग्ध और जल-सी अभिन्नता,
जरा दुई का नाम नहीं । प्रेम पंथ में स्वार्थ हलाहल
का तो कुछ भी काम नहीं ॥ पर्वत सम अपने दुःख को,
जो सर्षप जैसा गिनता है। किन्तु मित्र दुःख सर्षप भरकी,
गिरि से समता करता है। जहाँ पसीना पड़े मित्र का,
अपना रक्त बहा डाले। झेले अनहद कष्ट स्वयं पर,
सुखिया मित्र बना डाले ॥
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खोने
दे।
दब्बू या खुदगर्जी बनकर,
अपना धर्म न और नहीं कर्तव्य - भ्रष्ट,
अपने मित्रों को
होने
दे॥
शिलान्यास संस्कृति का माता
पिता सदा रख जाते हैं। आगे चलकर पूर्वबीज ही,
यथाकाल फल लाते हैं।
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संतति के गुण-दोष अधिकतर,
मात - पिता पर निर्भर हैं। संस्कारों के जीवन पट पर,
पड़ते चिन्ह प्रबलतर हैं॥
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